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सद्धर्ममण्डनम् ।
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( उत्तर )--आचारांग श्रुत० २ अ० ३ ३० २ को विहार करता मार्ग माई वीज हरी पानी मांठी होय तो छते रास्ते ते मार्गे जावणो नहीं । इण न्याय रस्तो न होय तो ते मार्गरो दोष नहीं। ऊंची भूमि, खाई, गड्ढने मार्गे छते रस्ते न जावणो रास्तो और न होय तो जावणो'।
इत्यादि जीतमलजीके लेखसे भी यह सिद्ध होता है कि दूसरा रास्ता नहीं होने पर साधु गर्त आदि वाले मार्गसे जाते हैं और वहां वे कारणवश पथिकके हाथकी सहायता भी आचारांग सूत्रोक्त विधिके अनुसार देते हैं। ऐसा करनेसे स्थविर कल्पो साधु का कल्प भङ्ग नहीं होता क्योंकि यह कार्य जिन आज्ञामें है। तथा उक्त मार्ग के अन्दर मुसीबतमें पड़े हुए साधुको जो पथिक अपने हाथकी सहायता देकर उनकी प्रागरक्षा करता है वह भी आज्ञानुसार ही कार्य करता है आज्ञासे बाहर या एकांतपापका कार्य नहीं करता। अतः आगमें जलते हुए साधुकी बांह पकड़ कर बाहर निकालने वाले गृहस्थ को पाप कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये।
यदि मरणान्त कष्ट उपस्थित होने पर भी गृहस्थ से शारीरिक सहायता लेना स्थविर कल्पी साधुका कल्प नहीं होता और उस हालतमें भी स्थाविर कल्पीको शारीरिक सहायता देना गृहस्थ के लिये वर्जित होता तो आचारांग सूत्रके इस पाठमें पथिक के हाथ की सहायता लेकर साधुको कठिन मार्गसे पार करने का विधान कैसे किया जाता ? तथा वृहत्कल्प सूत्रमें सर्पका जहर उतारनेके लिये साधु साध्वी को गृहस्थ से झाडा लगवाने का विधान क्यों किया जाता ? अत: साधु के लिये गृहस्थ से शारीरिक सहायता लेने को हर एक अवस्था में एकान्त निषेध करना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये।
(बोल ९ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २६५ के ऊपर भीषगजीके वार्तिकों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं
___ "वली केई एक इसडी कहे छै । सुभद्रासती साधुरो आंख मांहि थी फांटो काड्यो तिणमे धर्म कहे छै।"
इसके आगे २६७ पृष्ठमें अपनी ओरसे लिखते हैं कि "केतला एक जिन आज्ञा ना अजाण छै । ते साधु अग्नि मांहि बलतानी कोई गृहस्थी बांह पकड़नी वाहिरे काढे तथा साधुरी फांसी कोई काटे तिणमें धर्म कहे छै" इत्यादि। इनके कहने का तात्पर्य
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