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सद्धर्ममण्डनम् ।
तपो न प्राप्नोति कारणेन यतनया प्रवृत्तः। एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् । एवममुना प्रकारेण सपक्षेण विपक्षेण वा वैयावृत्य कारापणं । "सें" तस्य जिन कल्पिकस्य न कल्पते केवलोत्सर्ग प्रवृत्तत्वा त्तस्येतिभावः । एवमपवाद सेवनेन "से" तस्य जिन कल्प पर्य्यायो नतिष्ठति जिनकल्पात पततीत्पर्थः । परिहारंच तपो विशेष परि पालयति एषकल्पो जिन कल्पिकानाम्". अर्थः
___ साधु या साध्वीको रातमें या विकालके समय यदि सांप काट लेवे तो स्त्री (साध्वी ) गृहस्थ पुरुषके हाथसे, और पुरुष ( साधु ) गृहस्थ स्त्रीके हाथसे उस विषका झाडा दिलावे । ऐसा करना, स्थविर कल्पी साधुका कल्प है। क्योंकि स्थविर कल्पियों के कल्पमें अपवाद बहुत होता है । इस लिये उक्त कार्य करनेसे स्थविर कल्पी का पर्याय रह जाता है । वह अपने कल्पसे गिरता नहीं है। इसलिये इस कार्यासे स्थविर कल्पीको छेद आदि प्रायश्चित्त विशेष नहीं प्राप्त होते और प्रायश्चित्त स्वरूप तपस्या भी नहीं प्राप्त होती क्योंकि कारणवश और यतनाके साथ उक्त कार्यमें स्थविर कल्पीकी प्रवृत्ति हुई है परन्तु इस प्रकार अपने या दूसरे पक्षवालोंसे व्यावच कराना जिन कल्पी साधुका कल्प नहीं है क्योंकि जिन कल्पी साधु उत्सर्ग मार्गसे ही प्रवृत्त होता हैं। वह यदि इस प्रकार अपवाद मार्गका आश्रय लेवे तो उसका पर्याय स्थिर नहीं रहता किन्तु वह जिन कल्पसे गिर जाता हैं। तथा वह प्रायश्चित्तका अधिकारी होता है।
यहां स्थविर कल्पी साधु या साध्वीको सर्प काटने पर गृहस्थके हाथसे झाडा दिलाने का विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मरणान्त सङ्कटमे पड़े हुए साधु की प्राणरक्षा करना गृहस्थोंके लिये जिन आज्ञासे विरुद्ध नहीं है तथा ऐसी दशामें गृहस्थकी सहायता लेकर अपनी प्राणरक्षा करना स्थविर कल्पी साधुके लिये भी आज्ञा विरुद्ध तथा प्रायश्चित्त का कारण नहीं है। अतः मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी रक्षा करना गृहस्थके लिये आज्ञा बाहर बतलाकर उसमें एकान्त पाप स्थापन करना अज्ञानियोंका का- समझना चाहिये ।
आचारांग सुत्रप्ने गड्ढे आदिमें गिरनेकी सम्भावना होने पर गृहस्थका हाथ पकड़ कर पार करना कहा है। वह पाठ यह है
"सेभिक्खूवा गामाणुगाम दुइजमाणे अन्तरासे वप्पाणिवा फलिहाणिवा पागाराणिवा तोरणानिवा अग्गलाणिवा, अग्गल पासगा
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