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संधममण्डनम् ।
श्रावक यदि किसी श्रावकको अन्नादिके द्वारा धार्मिक सहायता देने रूप व्यावच करे तो उससे पाप वन्ध कैसे हो सकता है ? । बल्कि उससे और ज्यादा पुण्य ही होगा अतः श्रावकों से किया जाने बाला श्रावक के व्यावच को पाप बतलाना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये।
(बोल ७ वां समाप्त) (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशा पहलेमें कहा है कि सनत्कुमार देवेन्द्र श्रावकोंके हित, सुख, पथ्य यावत निःश्रेयसको इच्छा कानेसे भव सिद्धिसे लेकर यावत चरम शरीरी हो गये हैं । वह पाठ यह है
"सणं कुमारे देविंदे देवराया बहूणं समणाणं वहूर्ण समणोणं वहूणं सावधाणं वहुणं सावियाणं हियकामए सुह कोमए पत्थ कामए अणुकम्पिए निस्तेयसिए हियमुह निस्सेयसकामए से तेण?णं गोयमा ? सणं कुमारेणं भव सिद्धिए णो अचरिमे"
(भगवती शतक ३ उ० १) अर्थ:___ भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि हं गोतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज बहुत से साधु, साध्वी श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुखा, पथ्य, अनुकम्पा, और मोक्षकी कामना करते हैं। इसलिये वह भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम हैं ।
यहां श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुख, पथ्य आदिकी इच्छा करने मात्रसे सनत्कुमार देवेन्द्रको भवसिद्धिसे लेकर यावत चरम शरीरी तक हो जाना कहा है ऐसी दशामें यदि कोई साक्षात श्रावक और श्राविकाओंको हित, सुख और पथ्यका सम्पादन करके उसके धर्ममें सहायता पहुंचाने रूप व्यावच करे तो उसे पाप कैसे हो सकता है ? बल्कि उसको और ज्यादा धर्म ही होगा। अतः श्रावकोंसे किया जाने वाला श्रावकके व्यावचको सावध कायम करना अज्ञान समझना चाहिये ।
[बोल ८ वां समाप्त ] नोट-इस पाठकी टीकामें हित, सुख और पथ्य शब्दका क्रमशः सुख साधक वस्तु, तथा सुख और दुःखसे त्राण ( रक्षा ) रूप अर्थ किया है । वह टीका दानाधिकार के २७ वें बोलमें इस पाठके साथ रिखी गयी है। जिज्ञासुओं को उसे वहीं देख लेना चाहिये।
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