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वैयावृत्याधिकारः ।
३७१ जब कि दश विध व्यावच करना श्रावकों का भो कत्तव्य है तब फिर कोई . श्रावक यदि अपने साधर्मिक श्रावक का व्यावच करे तो उसमें पाप या प्रायश्चित्त कैसे . हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये ।
(बोल छटा समाप्त) (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ उद्देशा २ के अन्दर श्रावकों को अवर्ण वोलनेसे दुर्लभवोधी और वर्ण बोलनेसे सुलभवोधी होना कहा है। वह पाठ-~___ "पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभवोधियत्तार कम्म परेंति। तंजहा-अरिहंताणं अवन्नं वदमाणे अरिहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे आयरिय उवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे, चाउवण्ण स्स संघस्स अवन्न वदमाणे विवक्कनव वंभचेराणं अवन्नं वदमाणे । पंचहि ठाणेहि जोवामुलभवोधियत्ताए कम्मं पकरेंति अरिहताणं वन्नं वदमाणे जाव विवक्क तव वंभचेराणं वन्नं वमाणे"
(ठाणाङ्ग ठाणा ५ उ० २) अर्थः
अर्थात् पांच स्थानों में जीव, दुर्लभवोधी होनेका कर्म बांधता है।
अरिहंतको अवर्ण बोलता हुआ, और अरिहंत प्रणीत धर्मको अधर्ण बोलता हुआ, तथा आचार्य और उपाध्यायको अवर्ण वोलता हुआ, एवं चतुर्णात्मक सङ्घको अवर्ण वोलता हुआ और परिपक्क ब्रह्मचर्य और तप वाले पुरुष को अवर्ण वोलता हुआ।
इसी तरह पांच स्थानों में जीव मुलभवोधी होनेका कर्म बांधता है। जैसे कि
अरिहंत को वर्ण वोलता हुआ, यावत् , परिपक्क, तप और ब्रह्मचर्या वाले पुरुष को वर्ण बोलता हुआ। ___ यह उपर्युक्त गाथाका अर्थ है।
यहां चतुवर्णात्मक सङ्घको अवर्ण बोलनेसे दुर्लभवोधी कर्मका बन्ध होना, और वर्ण वोलनेसे सुलभ वोधी कर्मका वन्ध होना कहा है और श्रावक श्राविका भी चतुवर्णात्मक सङ्घके अङ्ग हैं। इसलिये श्रावक और श्राविकाको अवर्ण बोलना भी अवश्य ही दुर्लभवोधो कर्म बन्धका हेतु होता है। इसी तरह श्रावक और श्राविका को वर्ण बोलना भी निश्चय ही सुलभ वोधी कर्मबन्धका हेतु होता है। इस प्रकार जब कि श्रावक और श्राविकाको वर्ण बोलने मात्रसे जीव सुलभ वोधी कर्म बांधता है तब फिर कोई
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