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वैयावृत्याधिकारः।
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(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २६२ के ऊपर भीषणजीके वार्तिकका दाखला देते हुए लिखते हैं कि
"ते कहे छ । पडिमाधारी साधु अग्नि मांहि वलताने वाही पकडिने वाहिरे काढे । अथवा सिंहादिक पकडताने झाल राखे । तथा हर कोई साधु · साध्वी जिन कल्पी स्थविर कल्पी, त्यांने वांहि पकहिने बाहरे काढे इत्यादि कार्य करीने साता उपजावे । अथवा जीवां बंचावे । अथवा ऊंचाथी पडताने झाल वंचावे । अथवा भाखड़ पडताने झाल बंचावे अथवा ऊंचाथी पड़ताने वैठो करे तिण गृहस्थने अरिहंत भगवंतरी पिण आज्ञा नहीं। अनंता साधु साध्वी गये काल हुआ त्यांरी पिण आज्ञा नहीं। जिण साधुरे बंचायो तिगरी पिण आज्ञा नहीं। इत्यादि (भ्र. २६२)
इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि मरणान्त कष्टकी अवस्थामें भी यदि कोई गृहस्थ, साधुकी रक्षा कर देवे तो उसे एकांत पाप होता है ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी रक्षा करनेसे गृहस्थ को एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि वृहत्कल्प सूत्रके मूलपाठमें स्थविर कल्पी साधु या साध्वीको सर्प काटने पर गृहस्थसे झाडा दिलानेकी वीतरागने आज्ञा दी है। अत: मरणान्त कष्ट से साधुकी रक्षा करना आज्ञा वाहर तथा एकांतपाप नहीं है वह पाठ यह है
"निराशं चर्ण राओवा वियालेवा दीहपी? लूसेज्जा इत्थी पुरिसस्स पमज्जेजा पुरिसोवा इथिए पमज्जेजा। एवं से चिट्ठति परिहारंच नो पाउणति एसकप्पे शेर कप्पियाणं एवं से नो कप्पति एवं से नो चिट्ठति परिहारंच पाउणति एसकप्पे जिण कप्पियाणं"
(बृहत्कल्प सूत्र) (इसकी व्याख्या)
"सम्प्रति सूत्र व्याख्या क्रियते--निर्ग्रथं च शब्दान्निग्रंथों च रात्रौवा विकालेवा दीर्घ पृष्ठः सो लुषयेत् दंशेत । तत्र स्त्री वा पुरुषस्य हस्तेन तं विषमपमार्जयेत् । पुरुपोवा स्त्रियाः हस्तेन एवं से तस्य स्थविर कल्पिकस्य कल्पते । स्थविरकल्पस्य अपवाद बहुलत्वात । एवंचामुना प्रकारे णापवादमासेवमानस्य से तस्य तिष्ठति पर्यायः न स्थविर कल्पात. परिभ्रश्यति येन छेदादयः प्रायश्चित्त विशेषा स्तस्य न संति । परिहारंच
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