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सद्धममण्डनम् ।
व्यावचसे भिन्न है व्यावच स्वरूप नहीं है । यतः जैसे वैक्रिय समुद्घातके सावध होनेपर भी भगवान्का वन्दन सावय नहीं है उसी तरह ब्राह्मण कुमारोंके ताडनके सावध होने पर भी मुनिका व्यावच सावय नहीं है । इस लिये उत्तराध्ययन सूत्रकी उक्त गाथाका नाम लेकर मुनिके व्यावचको सावय कायम करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । इस विषयका विशेष विचार अनुकम्पाधिकार के ३७ में बोलमें किया गया है इसलिये यहां संक्षेपसे लिखा गया है ।
( बोल १ समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५२ के ऊपर राजप्रश्नीय सूत्र का मूल पाठ लिख कर उसकी सहायतासे वीतराग की भक्ति को सावद्य सिद्ध करने की चेष्टा करते हुए लिखते हैं
“इहां सूर्य्याभ नाटकने भक्ति कही छै । ते भक्ति सावद्य छै । ते माटे भक्तिनी भगवन्ते आज्ञा न दीधी"
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
राजनीय सूत्रके मूलपाठके आश्रयसे भक्तिको सावद्य कायम करना अज्ञान है । उक्त सूत्रके मूल पाठ भक्तिको नाटक स्वरूप नहीं कहा है किन्तु नाटकसे भक्तिको भिन्न बतलाया है वहांका पाठ यह है
"तं इच्छामिणं देवाणुवियाणं भत्ति पुव्वगं गोयमातियाणं समगाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविडिदं दिव्वं देव जुह दिव्वं देवाणुभागं वत्तीसत्तिवद्ध नटविहिं उवदंसित्तए"
( राजप्रनीय सूत्र )
अर्थ:
हे भगवन् ! मैं आप की भक्ति पूर्वक देव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति, दिव्य देव प्रभाव, और बत्तीस प्रकार की नाटक विधि गोतमादि श्रमण निग्रन्थों को दिखलाना चाहता हूं ।
यह उपर्युक्त गाथाका अर्थ है ।
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