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वैयावृत्याधिकारः ।
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कृपा करके शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि हे भाइयो ! 'सुखसे ही सुख मिलता है' इस मिथ्या सिद्धान्तका आश्रय लेकर सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मोक्ष धर्मका उपदेशक जैनागमको तुम मोहवश छोड़ रहे हो। तुम तुच्छ विषय सुखाके लोभमें पड़कर वास्तविक सुख मोक्षको मत छोड़ो मनोज्ञ आहार आदि खानेसे कामकी वृद्धि होती है और कामवासना के प्रवल होनेपर चित्तमें शान्ति नहीं मिल सकती । इस प्रकार चित्तमे समाधि उत्पन्न होना एकान्त असम्भव है । अतः असत्पक्षका आश्रय लेकर तुम अपनेको खराब कर रहे हो । जैसे कोई वणिक् पुत्र दूरसे लोहा लिए हुए आता था उसे रास्तेमे चांदी मिली पर उसने सोचा कि मैं दूरसे इस लोहेको लिये आ रहा हूं इसे छोड़कर चांदी कैसे लू । इसी प्रकार रास्ते में उसने सोना भी नहीं लिया । पीछे अपने स्थान पर पहुंचने पर उसको सोना चांदीको अपेक्षा लोहेका बहुत कम मूल्य मिला तो वह पछिताने लगा था उसी तरह अन्तमें तुम्हें भी पछिताना पड़ेगा ।
यहां जो लोग विषय सुखसे मोक्ष मिलनेका सिद्धान्त मानकर जैनेन्द्र प्रवचन का त्याग करते हैं उनका सिद्धान्त खण्डन करनेके लिये कहा है कि “विषय सुख भोगने से मोक्ष की प्राप्तिकी आशा रखना मिथ्या है। विषय सुख को छोड़ कर जैन मार्गसे गमन करना ही मोक्षका साधन है" । परन्तु किसीको साता देना सावद्य है या किसीको साता देने से धर्म या पुण्य नहीं होता यह बात यहां नहीं कही है । इस लिये इन गाथाओं का नाम लेकर दूसरेको साता देनेसे पाप कहना मिथ्यावादियोंका काय्यं समझना चाहिये ।
यदि कोई इन गाथाओं का यही तात्पर्य बतावे कि दूसरेको साता देनेसे लोह वणिककी तरह पश्चात्ताप करना पड़ता है अथवा आर्य मार्गसे दूर रहता है तो फिर किसी साधुको साता देना भी उसके हिसाब से पाप ही ठहरेगा । यदि कहो कि “साधु से इतरको साता देने से पश्चात्ताप करना इस गाथामें कहा है इस लिये साधुको साता देना बुरा नहीं है" तो यह मिथ्या है उक्त गाथाओंमें तथा उनकी टीकामें यह नहीं कहा है कि " साधुसे इतरको साता देने वाला लोह वणिककी तरह पश्चात्ताप करता है" किन्तु साधु अथवा गृहस्थ जो कोई ऐसा मानता है कि विषय सुखके सेवन करनेसे मोक्ष मिलता है उस अधम श्रद्धा वालेको लौह वणिककी तरह पश्चात्तापका भागी बतलाया है परन्तु अनुकम्पा करके किसी हीन दीन दुःखीके दुःख मिटाने वाले की यहां जिक्र भी नहीं है । अत: उक्त गाथाका नाम लेकर हीन दीन दुःखी जीव पर दया करके उन्हें साता देने वालेको एकान्त पापी कहना अज्ञान समझना चाहिये ।
बोल ४ समाप्त
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