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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २५७ के ऊपर लिखते हैं
"दश वैकालिक अध्ययन ३ गृहस्थनी सातां पूछ्यां सोलमो अनाचार लागतो कह्यो । तथा गृहस्थनो व्यावच कीधां अट्ठाईसमो अनाचार कह्यो। तथा निशोथ उद्देशा १३ गृहस्थनी रक्षा निमित्त भूति कर्म कियां प्रायश्चित्त करो तो गृहस्थनी सावध सांता वांछया तीर्थङ्कर गोत्र किम बंधे।
(भ्र० पृ० २५७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
___ गृहस्थसे साता पूछना तथा उसका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार कहा है गृहस्थ के लिये अनाचार नहीं कहा है। देखिये दश वैकालिक सूत्रमें आचारों की गणना करते हुए पहले पहल यह गाथा लिखी है
"संजमे सुटि अप्पाणं विप्पमुकाणताइणं
तेसिमेयमणा इन्नं निग्गंथाण महेसिणं" अर्थ :
संयमके अन्दर अपनी आत्माको स्थिर रहने वाले और वाह्य तथा अन्तरसे मुक्त एवं अपनी आत्माको रक्षा करने वाले निग्रंथ महर्षियोंके लिये ये बातें अनाचार हैं।
इस गाथामें स्पष्ट कहा है कि अग्रिम गाथाओंमें कहे हुए ५२ अनाचार श्रमण निग्रन्थोंके हैं गृहस्थोंके नहीं हैं । इस लिये गृहस्थका साता पूछना और गृहस्थका व्यावव करना दश वैकालिक सूत्रके पाठानुसार गृहस्थके लिये एकान्त पाप नहीं हो सकता। अतः दशवकालिक सूत्रका नाम लेकर साधुसे इतरकी साता और व्यावचको सावध कायम करना अज्ञान है।
यदि कोई ऐसी शंका करे कि गृहस्थकी साता पूछने और व्यावच करनेसे जब कि साधुको अनाचारका पाप लगता है तो फिर श्रावकको पाप क्यों नहीं लगेगा ? । तो इसका उत्तर यह है कि साधु और श्रावकका कल्प जुदा जुदा है एक नहीं है । इसलिये पूर्वोक्त कार्य साधुके कल्पसे विरुद्ध होनेके कारण साधुके लिये ही अनाचार है गृहस्थ के कल्पसे विरुद्ध नहीं होनेसे गृहस्थके लिये अनाचार नहीं है। जैसे अपने सांभोगिक साधुसे इतर प्राणीको उत्सर्ग मार्गमें आहार पानी देना साधुके लिये प्रायश्चित्तका कारण कहा है परन्तु गृहस्थ के लिये नहीं । गृहस्थके लिये तो अपने आश्रित पशु नौकर आदि को भात पानी नहीं देनेसे उसके पहले व्रतमें अतिचार होना कहा है। उसी तरह साधु
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