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वैयावृत्याधिकारः ।
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यहां सूर्य्याभने भगवान्की भक्तिपूर्वक नाटक करने की आज्ञा मांगी है परन्तु उस कोही भगद्भक्तिस्वरूप नहीं बतलाया है क्योंकि इस पाठमें “भक्ति पुग्वगं" ऐसा पाठ आया है "भक्ति रूवं" ऐसा पाठ नहीं है । इसलिये नाटकको ही भक्ति कायम करना मिथ्या है।
वीतरागमें परमानुराग रखनेका नाम वीतरागकी भक्ति है और शरीर वेष भूषा और भाषा आदि द्वारा किसी उत्तम पुरुषकी अवस्थाका अनुकरण करना नाटक है। इसलिये नाटक दूसरी चीज है और भक्ति दूसरी चीज है । इन दोनों को एक कायम करना अज्ञान है । यह विषय अनुकम्पाधिकारके ३५ वें बोलमें स्पष्ट कर दिया गया है। विशेष जिज्ञासुओंको वहीं देख लेना चाहिये । .
( बोल २ समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५४ के ऊपर साधुके सिवाय दूसरे जीवको साता उत्पन्न करनेसे एकान्त पापकी सिद्धि करनेके लिये लिखते हैं
“कोई कहे सर्वजीवाने साता उपजायां तीर्थंकर गोत्र बंधे, इम कहे ते पिण झूठ छ । सूत्रमें तो सर्व जीवांरो नाम चाल्यो नहीं"
इसके अनन्तर ज्ञाता सूत्रका मूलपाठ और उसकी टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"इहां टीका पण गुर्वादिक साधु इज कया । पिण गृहस्थ न कह्या । गृहस्थनी व्यावच करे तेतो अठ्ठाइसमो अणाचार है । पिण आज्ञामें नहीं ।" इत्यादि इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
ज्ञातासूत्र मूलपाठ तीर्थकर नाम गोत्र बांधनेके २० कारण बतलाये हैं । उनमें समाधि (चित्तमें शान्ति ) उत्पन्न करना भी तीर्थकर गोत्र बांधनेका कारण कहा है। वह समाधि जिसकी उत्पन्न करनी चाहिये ऐसा कोई खास करके पुरुष विशेष वहां नहीं कहा गया है ऐसी दशा में केवल साधुके चित्तमें शान्ति उत्पन्न करना ही तीर्थंकर गोत्र Waiter कारण होता है इतर प्राणियोंको शान्ति देना तीर्थंकर गोत्र वन्धका कारण नहीं होता ऐसी कल्पना अप्रामाणिक और मूलपाठसे विरुद्ध है ।
इस पाठकी टीकासे भी यह कल्पना नहीं की जा सकती देखिये वहांकी दीका
यह है :
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