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लेश्याधिकारः ।
यदि कोई सामान्य आरम्भको कृष्णलेश्याका लक्षण मान कर संयतियों में कृष्णश्याका स्थापन करे तो फिर सामान्य मायाको नील लेइयाका लक्षण मान कर अपमादी साधु नील या भी उसे माननी पड़ेगी परन्तु यदि सामान्य माया नील लेश्या का लक्षण नहीं है, तो उसी तरह सामान्य आरम्भ करना भी कृष्ण लेश्या का लक्षण नहीं है अतः साधुओं में भाव रूप कृष्ण लेश्या का स्थापन करना अज्ञान मूलक सम"झना चाहिये ।
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शीतल श्याके द्वारा जो भगवान ने गोशालक की प्राणरक्षा की थी उससे भगवान को पांच क्रिया लगनेकी कल्पना करना भी मिथ्या है क्योंकि शीतल लेश्याके प्रयोग करनेमें उत्कृष्ट पांच क्रिया नहीं होती यह विस्तार के साथ लब्धि प्रकरणमें कहा जा चुका है अतः लब्धि का नाम लेकर भगवान में कृष्ण लेश्याका अंश कायम करना एकांत मिथ्या है ।
यदि कोई कहे कि "कृष्ण लेश्या हुवे विना लब्धिका प्रयोग नहीं किया जाता इस लिये भगवान में कृष्ण लेश्या अवश्य थी” तो उसे कहना चाहिये कि पुलाक निग्रन्थ, . जिस समय पुलाक लब्धिका प्रयोग करता है उसी समय उसमें पुलाक नियण्ठा माता है । जीतमलजीने भी भिक्खुयश रसायनमें लिखा है कि
“पुलाक नियंठो पीछाणए लब्धिफोड्यां कह्यो जिण जाणए । स्थिति अन्तलब्धी स्थितितो अधिकायए ।
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विरह उत्कृष्ट : असंखेज्ज वासए पछे तो अवश्य प्रकटे विमासए । यामें चारित्र "गुण स्वीकारए ति वन्दन जोग विचारए”
परन्तु पुलाक निग्रन्थ में तीन विशुद्ध भाव लेश्या ही कही गई हैं कृष्ण लेश्या नहीं तथा वकुश और प्रतिसेवना कुशील मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाते हैं परन्तु उनमें लेश्या विशुद्ध ही कही गयी हैं इसलिये कृष्ण लेश्याके हुए विना लब्धिका प्रयोग नहीं होता यह कथन अज्ञानमूलक है ।
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[ बोल ८ वां समाप्त ]
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( प्रेरक )
पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशीलमें तीन विशुद्ध भावलेश्या ही होती हैं इस में क्या प्रमाण है ?
(प्ररूपक)
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