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लेश्याधिकारः ।
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तरह रुद्रध्यानमें अविश्वास होनेके कारण जो अतिचार माता है उसकी निवृत्तिके लिये प्रतिक्रमण करता है रुद्रध्यानके साधुमें होनेसे नहीं ।
प्रतिक्रमण सूत्रमें जैसे चार ध्यानोंके प्रतिक्रमणके विषयमें पाठ आया है उसी तरह मिथ्या दर्शन शल्य के प्रतिक्रमण के विषय में भी पाठ आया है। वह पाठ यह है
"कमामि तहिं सल्लेहि मायासल्लेणं नीयांणसल्लेगं मिच्छादंसण सल्लेणं"
अर्थः
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साधु कहता है कि मैं माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्या दर्शन शल्य इन तीनों से निवृत्त होता हूं ।
यह इस पाठका अर्थ है ।
यहां साधुको मिथ्यादर्शन शल्यसे भी प्रतिक्रमण करना कहा है परन्तु साधुमें मिथ्या दर्शन शल्यका सद्भाव नहीं है उसी तरह रुद्र ध्यान भी साधुमें नहीं होता तथापि उसमें अविश्वास होनेके कारण प्रतिक्रमण करना कहा है। यदि साधुमें रुद्र ध्यान होनेसे वह प्रतिक्रमण करता है तो फिर साधुमें मिथ्या दर्शन शल्य होने से उसका प्रतिक्रमण करना मानना चाहिये । परन्तु साधुमें मिथ्यादर्शन नहीं होता उसी तरह उसमें रुद्र ध्यान भी नहीं होता, किन्तु उनमें अविश्वास होनेके कारण साधु प्रतिक्रमण करता है ।
( बोल ११ वां समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २४० पर पन्नावणा सूत्र पद १७ का मूलपाठ लिख कर उसकी मलय गिरिकी टीकाकी साक्षी देकर साधुओंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका स्थापन करते हैं । ( भ्र० पृ० २४० य० सू० १७ )
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक)
मलय गिरि टीकामें मन: पर्य्यवज्ञानियोंमें कृष्णलेश्या बतलाई गयी है परन्तु वह टीका भगवती शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठ और उसकी टीकासे विरुद्ध है अतः वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती है। भगवती शतक १ उद्देशा २ का मूलपाठ और उसकी ४५
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