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लेश्याधिकारः ।
अप्पाणेणं उडूढं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता ! उप्पएज्जा"
( भ० श० ३ उ०५ )
३५५
अर्थः
( प्रश्न ) हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष खङ्ग और धर्मको धारण करके चलता है उसी तरह भावितात्मा अनगार संघ आदिका कार्य्यके लिये असि चर्मको धारण करके ऊपर आकाशमें चल सकता है ?
( उत्तर ) हां ! गोतम ! चल सकता है ।
यह उपर्युक्त पाठका मूलार्थ है ।
इससे सिद्ध होता है कि मूल
इस पीठमें संघ सादिका कार्य्यके लिये असि और चर्मको धारण करके ऊपर आकाशमें चलने वाले साधुको भावितात्मा अनगार कहा है और उत्तर गुण दोष लगाने पर भी साधुओंमें संयमके श्रेष्ठ गुण मौजूद रहते हैं इसलिये उनमें विशुद्ध भाव लेश्या ही होती हैं अप्रशस्त भाव लेश्या नहीं होती अन्यथा असि चर्म धारी होकर आकाशमें चलने वाले साधुको इस पाठ में भावितात्मा नहीं कहते । जिसमें शुद्ध भाव देश्याएं होती हैं वही भावितात्मा हो सकता है अशुद्ध भावश्या वाला नहीं अतः साधुओं में अप्रशस्त भाव लेश्याओं का स्थापन करना मिथ्या है।
जीतमलजीने भिक्खुयश रसायन नामक ग्रन्थमें लिखा है कि
“मूलगुणने उत्तर गुण मांहिए दोष लगावे ते दुःख दायए पडिसेवणा कुशील पिछाणए । जघन्य दो सौ कोडते जाणए नहीं विरह ए थी ओछा नाहीं ए । एपिण छटठे गुणठाणे कहिवायए यामें चारित्र गुण स्वीकार ए । तिणसूं वन्दवा जोग विचार ए ।
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इनों में जीतमलजी ने कहा है कि प्रतिसेवना कुशील यद्यपि मूलगुण और उत्तर गुण दोष लगाता है तथापि उसमें छट्ठा गुण स्थान और चारित्रके श्रेष्ठ गुण मौजूद हैं तः वह वन्दनीय समझा जाता है।
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इनके मतानुयायियों से पूछना चाहिये कि मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगाने वाले साधुओं में जबकि चारित्रके श्रेष्ठ गुण मौजूद रहते हैं तब फिर उनमें अप्रशस्त कृष्णादिक भाव लेश्या कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओं में चरित्र श्रेष्ट गुण कदापि नहीं विद्यमान रह सकते । अतः चारित्रके श्रेष्ठ गुण, और अशुभ भाव लेश्याओं का सद्भाव, इन दोनों परस्पर विरुद्ध बातोंको एक व्यक्तिमें स्वीकार करना अज्ञान मूलक समझना चाहिये ।
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