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सद्धर्ममण्डनम् ।
तेजः पद्म और शुक्ल लेश्याओं में भी दोषका प्रतिसेवन होता है इस लिये दोषके प्रतिसेवनका नाम लेकर साधुओंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन नहीं किया जा सकता । वैमानिफ देवताओंमें तेजः पद्म और शुक्ल लेश्या ही मानी गई हैं परन्तु वैमानिक देवता आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं । इस प्रकार जब कि आत्मारंभी परार भी और तदुभयारंभी वैमानिक देवताओंमें विशुद्ध तीन भाव लेश्या ही मानी गई हैं तब महाव्रत के पालने वाले मुनियोंमें दोष लगानेपर भी प्रशस्त तीन भाव लेश्याओं के होने में क्या संदेह है ?
अब इन लेश्याओं का स्वरूप समझाने के लिये आवश्यक सूत्रकी टीकामें दिये हुए दृष्टान्त वताये जाते हैं
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" जहजम्बूतरु रेगो सुपक्कफल भरिय नमिय सालग्गो । दिट्ठो छहि पुरिसेहिं तेवंती जम्बु भक्खेमो । किह पुणते वेंतेको आरुहयाणाण जीव संदेहो । तो छिंदि ऊण मूले पाडे मुताहे भक्खेमो । बितिआह एहहेणं किं छिण्णेणं तरुण अम्हंति । साहा महल छिदह तेइयो वेंती प्रसाहाओ । गोच्छे चउत्थ ओऊण पञ्चमो वेगेण्हह फलाइ । छट्ठोवेंति पडिया एएच्चिय खाह वेतु जे । दिट्ठ' तस्सो वणयो जोर्वेति तरूवि छिन्नमूलाओ । सोव किन्हाए साल महल्लाउ नीलाओ । हवह पसाहा काऊ गोच्छा तेऊ फलाय पम्हाए । पडियाए शुक्कलेस्सा अहवा अन्न मुदाहरणं ।" अर्थ:
पके हुए सुन्दर फलोंके भारसे नम्र शाखा वाले किसी एक जामुनके वृक्षको छः पुरुषोंने देखा । वे सभी कहने लगे कि हम लोग इस जामुनके फलको खांय । उनमें से किसी एक जामुन फलको पानेका उपाय बतलाते हुए कहा कि बृक्षके ऊपर चढ़नेमें गिरने का भय है इस लिये इस वृक्षको जड़से काटकर हम लोग इसके फलोंको खांय । दूसरे ने कहा कि इतने बड़े वृक्षको काटनेसे क्या प्रयोजन है इसकी शाखाको काट कर हम लोग जामुन खा लेवें। तीसरेने कहा कि शाखाओंको काटना भी ठीक नहीं है किन्तु
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