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लेश्याधिकारः।
"कषाय कुसोले पुच्छा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इन्दताएवा उववज्जेज्जा जाव अहमिन्दताए उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच अन्नयरेसु उववज्जेज्जा नियंठे पुच्छा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच गोइन्दताए उववज्जेज्जा जावणो लोग पालताए उववज्जेज्जा अहमिन्दताए उववज्जेज्जा, विराहणं पहुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा"
(भगक्ती शतक २५ उ०६) अर्थ:
हे भगवन् ! कषाय कुशीलके विषय में प्रश्न है ?
(उत्तर) हे गोतम ! अविराषक कषाय कुशील इन्द्रसे लेकर यावत् अहमिन्द्रमें उत्पन्न होता है और विराधक कषाय कुशोल भुवनपत्यादिकोंमें जाता है। .(प्रश्न) निथके विषवमें प्रश्न है ?
( उत्सर) भपिराधक निग्रक इन्दादिकोंमें तथा लोकपालादिकोंमें उत्पन्न नहीं होता किन्तु यह अहमिन्द्र होता है और विराधक निमय भुवनपत्यादिकों में जाता है।
- यहां कषाय कुशीलकी तरह निथको भी विगधक कहा है अतः विगधक होनेसे यदि कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी हो तो फिर निथको भी दोषका प्रतिसेवी कहना होगा क्योंकि इस पाठमें निग्रंथको भी विराधक कहा है। इस लिये जैसे विराधक होने पर भी निथ दोषका प्रतिसेवी नहीं होता उसी तरह कषाय कुशील भी दोषका प्रतिसेवी नहीं होता । अतः विरावक तथा गिरनेका नाम लेकर कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बताना अज्ञान है।
(बोल १० वां समाप्त) (प्रेरक)
__ भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २३९ पर आवश्यक सूत्रका नाम लेकर लिखते हैं :
"अथ इहां पिण छः लेश्या कही। जो अशुभ लेश्या नवर्त तो ए पाठ क्यूं कह्यो । तथा पडिकमामि चउहि झानेहि अट्टणं झाणेणं रुद्दणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केगं झाणेणं इहां साधुमें चार ध्यान कह्या। जिम आते रुद्रध्यान पावे तिम कृष्ण, नील; कापोत लेश्या पिण पावे"
(भ्र० पृ० २३९)
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