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सद्धर्ममण्डनम् ।
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(प्रेस्क)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २१२ पर भगवती शतक २५ उद्देशा ६ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"कषाय कुशील छांडि ए छः ठीकाने आवतो कह्यो। कषाय कुशीलने दोष लागे इज नहीं तो संयमा संयममें किम आवे एतो साधुपणो भांगि श्रावकथयो तेतो मोंटो दोष छै । एतो साम्प्रत दोष लागे तिवारे साधुरो श्रावक हुवे छ । दोष लागा विना तो साधुरो श्रावक हुवे नहीं । जे कषाय नियंठे तो साधु हुन्तो पछे साधु पणो पल्यो नहीं तिवारे श्रावकरा व्रत आदरी श्रावक थयो जे साधुरो श्रावक थयो यह निश्चय दोष लाग्यो" . इसका क्या समाधान ?
(भ्र० पृ० २१२) (प्ररूपक)
जैसे कषाय कुशील, कषाय कुशीलपनाको छोड़कर संयमासंयममें जाता है उसी तरह निपथ भी निथपनाको छोड़ कर असंयममें जाता है । यदि कषाय कुशील, कषाय कुशीलपना छोड़कर संयमा संयममें जानेसे दोषका प्रतिसेवी होता है तो फिर निप्रथ भी निनथपना छोड़ कर असंयममें जानेसे दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं होता। भ्रमविध्वंसनकार भी निथको दोषका प्रतिसेवी नहीं मानते ऐसी दशामें कषाय कुशीलको प्रतिसेवी मानना उनका अयुक्त है।
वास्तवमें दोषका प्रतिसेवी वही कहा गया है जो मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगाता है । जो मूल गुण और उत्तर गुगमें दोष नहीं लगाता है वह दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा गया है। कषाय कुशील और निग्रंथ मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाते हैं इस लिये वे दोषके प्रतिसेवो नहीं हैं। यदि गिरनेसे दोषका प्रतिसेवी माना जाय तो फिर निप्रथको भी प्रतिसेवी ही मानना पड़ेगा क्योंकि निनथ भी असंयममें आता है अतः गिरनेसे कोई दोषका प्रतिसेवी नहीं माना जाता किन्तु मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगानेसे माना जाता है अतः जैसे निपथ गिरकर असंयममें जानेपर भी दोषका प्रतिसेवी नहीं है उसी तरह कषाय कुशील गिर कर संयमा संयममें जाने पर भी दोषका प्रतिसेवी नहीं है ।
यदि कोई कहे कि कषाय कुशील शास्त्रमें विराधकभी कहा गया है फिर वह दोष का प्रतिसेवी क्यों नहीं ? तो इसका उत्तर यह है कि कषाय कुशीलकी तरह निग्रंथ भी विराधक कहा गया है फिर निनथको भी दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं मानते ?
भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में निग्रवको विराधक कहा है वह पाठ यह है :
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