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लेश्याधिकारः।
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का परिणामी नहीं है। जो मनो गुप्ति आदि तीन गुप्तियोंसे रहित है उसे यहां कृष्गलेश्याका परिणामी कहा है साधु मनोगुप्ति आदिसे युक्त होता है इसलिये वह कृष्णलेश्या का परिणामी नहीं हो सकता।
अजितेन्द्रिय और चोरी आदिमें प्रवृत्त रहना यहां कृष्णलेश्याका बक्षण कहा है परन्तु साधु जितेन्द्रिय और चोरी आदि दुष्कर्मसे निवृत्त रहते हैं अतः इस पाठमें कहा हुमा कृष्गलेश्याका लक्षण साधुमें एक भी नहीं मिलता अतः संयति पुरुषोंमें और विशेष कर कषाय कुशील में कृष्गलेश्या का सद्भाव कायम करना अज्ञानका परिणाम सम. झना चाहिये।
[बोल ७ वां समाप्त]
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३८ पर लिखते हैं
"उत्तराध्ययन अध्ययन ३४ गाथा २१ पञ्चासवप्पमत्ता इतिवचनात् पञ्चास्रवमें प्रवते ते कृष्णलेश्याना लक्षण कहा अने भगवान् शीतल तेजो लेश्या लब्धिफोडो तिहां उत्कृष्टी पांच क्रिया कयो ते मांटे ए कृष्णलेश्याना अंश जाणवो"
इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
उत्तराध्ययन अ० ३४ गाथा २१ में पांच आस्रवमें प्रवृत्त रहना कृष्णलेश्या का लक्षण कहा है परन्तु जो पुरुष सामान्य रूपसे कभी कभी प्रमाद वश मंद आरम्भ करता है वह भी पांच आस्रवमें प्रवृत्त कहा जा सकता है अत: उसमें भी कृष्णलेश्याका लक्षण न चला जाय इसलिये उक्त गाथामें “तीबारंभ परिणयो'' यह कृष्गलेशी पुरुषका विशेषण लगाया है। इस विशेषणको लगा कर जो पुरुष पांच आस्रवोंमें तीब्र रूपसे प्रवृत्त रहता है जो तीव्र आरम्भ करता है उसीको कृष्णलेश्याका परिणामी कहा है जो तीव्र आरम्भ नहीं करता उसको नहीं अतएव इस विशेषग का सार्थक्य बतलाते हुए टीकाकार ने लिखा है कि-"अयंचा तीव्रारम्भोऽपिस्यादतआह"
अर्थात पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त होना, मन वचन कायसे गुप्त नहीं रहना, और पृथिवी काय माविका उपमद करना, ये सब सामान्य आरम्भ करने वाले पुरुषमें भी हो सकते हैं परन्तु सामान्य आरम्भ करने वाले कृष्णलेश्याके परिणामी नहीं होते इसलिये 'तीव्वारम्भ परिणयो' यह कृष्णलेशीका विशेषण लगाया है। इसलिये जो उत्कट हिंसा आदि का मारम्भ करता है वही कृष्णलेश्याका परिणामी है सामान्य आरम्भ करनेवाला नहीं।
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