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सद्धममण्डनम् ।
अध्यवसायसे तीव्र यानी उत्कट सावध व्यापारमें प्रवृत्त होकर तत्स्वरूपताको प्राप्त, क्षुद्र सभीका अहित करने वाला अथवा कृपणतासे युक्त विना विचारे चोरी आदि बुरे कामों में झटपट प्रवृत्त हो जाने वाला इस लोक और परलोकके बिगड़नेकी थोड़ी भी शंका नहीं रखने वाला प्राणियोंकी हिंसादि रूप वाधासे अत्यन्त निरपेक्ष परिणाम वाला, जीवहिंसा करनेमें थोड़ी भी शंका नहीं रखने वाला अथवा दूसरेकी प्रशंसासे रहित अजितेन्द्रिय
और पूर्वोक्त पंचाश्रव प्रमत्तत्व आदि योगोंसे अत्यन्त युक्त पुरुष कृष्ण लेश्याके परिणामी होते हैं जैसे कृष्णादि द्रव्यके संसर्गसे स्फटिक मणि तद्र प (कृष्ण रूप ) हो जाता है उसी तरह उक्त जीव भी कृष्ण लेश्याका परिणामी होता है कहा भी है कृष्णादि द्रव्यके संसर्गसे स्फटिककी तरह जो आत्माका कृष्णादिरूप परिणाम होता है उसीमें लेश्या शब्दका प्रयोग होता है । यह उक्त गाथाओंका टीकानुसार अर्थ है।
इन गाथाओंमें जो कृष्ण लेश्याके लक्षण कहे गये हैं उनमेंसे एक भी साधुओंमें नहीं पाया जाता। कृष्ण लेशी जीव, हिंसा आदि पांच आस्रवों में प्रमत्त (मग्न ) या प्रवृत्त रहने वाला कहा गया है परन्तु साधु आस्रवोंमें मग्न नहीं रहता किन्तु वह पांच आस्रवका त्यागी होता है इस लिये साधुओंमें कृष्ण लेश्याका लक्षण नहीं घटता। यदि कोई कहे कि "प्रमादी साधु आरंभी कहा गया है और आरंभ करना आस्रवका सेवन करना है इस लिये यह लक्षण प्रमादी साधुमें घटता है" तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथामें सामान्य आरंभी पुरुषका ग्रहण नहीं होता किन्तु विशिष्ट रूपसे जो हिंसा आदि आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है उसीका ग्रहण है अतएव इस गाथामें कहा है कि तीब्वारंभ परिणयो" इसका अर्थ टीकाकारने यह किया है
"अयंच अतीवार भोपि स्यादत माह तीत्राः उत्कटाः स्वरूपतोऽध्यवसायतोवा आरम्भा सर्वसावध व्यापारास्तत्परिणतः तत्प्रवृत्या तदात्मतांगतः”
अर्थात सामान्य आरम्भ करने वाला पुरुष भी पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त, और मन वचन कायसे अगुप्त तथा छःकायके उपमदसे अविरत कहा जा सकता है परंतु उसका ग्रहण वर्जित करनेके लिये इस गाथामें "तीव्वारंभ परिणयो" ऐसा पद दिया गया है इसलिये जिसका आरंभ, स्वरूप और अध्यवसाय इन दोनोंसे उत्कट है और जो हमेशः पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त होकर तत्स्वरूप हो गया है उसीका इस गाथामें ग्रहण है और वही कृष्णलेश्याका परिणामी है। जो कभी कभी सामान्य रूपसे मंद आरम्भ करता है वह कृष्णलेश्या का परिणामी नहीं है । षष्ट गुण स्थान वाला प्रमादी साधु यदा कदाचित प्रमादवश आरम्म करता है परन्तु उसका आरम्भ तीव्र नहीं होता अतः वह कृष्णलेश्या
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