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सद्धर्ममण्डनम् । संयतिओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका कथन है वहां द्रव्यलेश्याकी अपेक्षासे समझना चाहिये भावलेश्याकी अपेक्षासे नहीं।"
___ यह टीका मूलपाठके साथ पहले लिखी जा चुकी है टीकाकारकी इस उक्तिसे ओर वहांके मूलपाठसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूल गाठमें कषाय कुशीलमें छः द्रव्यलेश्या कही गई हैं भाव लेश्या नहीं अतः भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठका नाम लेकर कषाय कुशील में कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना एकान्त मिथ्या है।
(बोल ५ वां समाप्त) (प्रेरक)
कषाय कुशील निपथ मूल गुग और उत्तर गुगमें दोष नहीं लगाता है इसमें क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है वह पाठ यह है
"कसाय कुसीले पुच्छा गोयमा ! नोपडिसेवए होना एवं नियंठेवि वउरोऽवि"
(भग० श० २५ । उ०६) अर्थ :
हे भगवन् ! कषाय कुशील दोष का प्रतिसेवी होता है या नहीं ?
( उत्तर) हे गोतम ! कषाय कुशील मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाता इसी तरह निग्रंथ और स्नातक को भी समझना चाहिये। यह उक्त गाथाका अर्थ है।
इस पाठमें स्नातक और निग्रन्थकी तरह कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि कषाय कुशील निप्रथमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याएं नहीं होती क्यों कि जिसमें कृष्णादि तीन भाव लेश्या होती हैं वह अवश्य ही दोषका सेवन करता है कषाय कुशील दोषका सेवन नहीं करता इसलिये उसमें कृष्णादि तीन भाव लेश्यायें नहीं होती अतः कषाय कुशीलमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंका स्थापन करना भगवती सूत्रके मूलपाठसे विरुद्ध समझना चाहिये ।
बोल छठा समाप्त
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