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सद्धर्ममण्डनम् ।
सूत्र समर्थन करते हैं खण्डन नहीं करते। जब कि भगवती सूत्रके मूल पाठमें और उसकी टीकामें संयतियोंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंके होनेका निषेध कर दिया है तो उसके विरुद्ध पन्नावणा सूत्रमें संयतियोंमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंका सद्भाव कैसे कहा जा सकता है ? अब पाठकोंके ज्ञानार्थ पन्नावण सूत्रका वह पाठ लिख कर उसका अर्थ कर दिया जाता है।
वह पाठ यह है :__"कण्हलेस्साणं भन्ते ! नेरइया सव्वे समाहारा सम सरीरा सवेवपुच्छा ? गोयमा ! जहा ओहिया णवरं गेरड्या वेदणाए मायो मिच्छदिट्ठी उववन्नगाय अमायी सम्मदिछी उववन्न गाय भाणियव्वा सेसंतहेव जहा ओहियाणं असुर कुमारा जाव वोणमंतरा एते जहा
ओहिया णवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थणं जेते सम्महिट्ठी तेतिविहा पन्नत्ता संजया असंजया संजया संजया जहा ओहियाणं"
(पन्नावणासूत्र पद १७) अर्थ:
(प्रश्न ) हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले नारकी क्या सभी समान आहार वाले और समाम शरीर वाले होते हैं ?
(उत्तर) हे गोतम ! जैसा औधिक दण्डकमें कहा गया है वैसा इसमें भी कहना चाहिये सिर्फ इतना विशेष है कि जो मायी मिथ्यादृष्टि मर कर नरकमें उत्पन्न होते हैं वे महान् वेदना वाले होते हैं और जो अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं वे अल्प वेदना वाले होते हैं शेष सभी बातें औधिक दण्डकके समान समझनी चाहिये । असुर कुमार और धाण व्यन्तरोंको भी औधिक दण्डकके समान ही समझनी चाहिये । मनुष्यों में यह विशेष है-सम्यग्दृष्टि मनुष्य विविध होते हैं- १) संयत (२) असंयत (३) और संयता संयत । शेष सब औधिक दण्डक के समान समझना चाहिये।
___ यह इस पाठका अर्थ है।
इस पाठमें "जहा ओहियाणं" कह कर औधिक दण्डकके समान ही संयति जीवोंका भेद कहा है । औधिक दण्डकमें संयतिके चार भेद कहे गए हैं प्रमादी, अप्रमादी, सरागी और वीतरागी। इन चारों प्रकारके संयतियोंको भगवती सूत्रमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेण्याओंमें न होना कहा है इसलिये इस पाठमें भी वही बात
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