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प्रायश्चित्तायधिकारः।
३२९ का नाम लेकर भगवानको चूक जानेकी कल्पना करना निमूल तथा निराधार समझना चाहिये।
[बोल १६ वां समाप्त ]
भ्रम विध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २२४ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ९ की टीकामें लिखी हुई गाथाको लिख कर उसकी साक्षी देते हुए लिखते हैं
"तथा छवास्थ तीर्थकर दीक्षा लेवे जिण दिन साथे कोई दीक्षा लेवे तेतो ठीक छै पिण तठापछे केवल ज्ञान उपना पहिला औरने दीक्षा देवे नहीं ठाणाङ्ग ठाणा ९ अर्थमें एरवी माथा कही है।
(भ्र० पृ० २२४) - इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ९ के टन्या अर्थमें लिखी हुई गाथाका नाम लेकर भगवानको चूक जानेकी प्ररूपणा मिथ्या है। प्रथम तो वह गाथा कहीं मूलपाठ या किसी प्रमाणिक टीकामें नहीं पायी जाती इस लिये वह गाथा प्रमाण नहीं मानी जा सकती। दूसरी बात यह है कि उस गाथामें "नय सोसवगं दिक्खंति" यह लिखा है अर्थात् "छप्रस्थ तीर्थकर शिष्य वर्गको दीक्षा नहीं देते।" यहां शिष्य वर्गको दीक्षा देनेका निषेध किया है किसी एक शिष्यको दोक्षा देनेका निषेध नहीं है अत: इस गाथासे भी एक व्यक्ति (गोशालक) को दीक्षा देनेसे भगवानका चूकना नहीं सिद्ध हो सकता। अतः किसी अज्ञात व्यक्तिकी बनाई हुई इस गाथाका नाम लेकर भगवान के चूक जानेका समर्थन करना अज्ञान है।
वास्तवमें छद्मस्थ तीर्थकर, वीतराग तीर्थकरके समान ही कल्पातीत होते हैं इस लिये उनके कार्यको शास्त्रीय कल्पानुसार दोष नहीं कहा जा सकता क्योंकि शास्त्रीय कल्प कल्पस्थित साधुओं पर ही लगता है कंल्पातीत पर नहीं। कल्पातीत साधु अपने ज्ञानमें जैसा देखते हैं वैसा ही करते हैं, यह उनका दोष नहीं किन्तु गुण है। ठाणाङ्ग ठाणा ९ के टब्वा अर्थमें लिखी हुई गाथा, तीर्थंकरोंका कल्प नहीं वतलाती है कि "अमुक अमुक कार्य तीर्थ करको कल्पता है और अमुक अमुक नहीं" क्योंकि कल्पातीतका कोई कल्प नहीं होता । तीर्थंकर लोग छमस्थ अवस्थामें प्रायः जो कार्य करते हैं उसका वर्णनमात्र इस गाथामें किया है अतः इस गाथाका नाम लेकर तीर्थ करमें कल्प कायम करके उन्हें चूकनेकी कल्पना करना मिथ्या है।
(बोल १७ वां समाप्त)
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