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प्रायश्चित्ताधधिकारः।
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इस गाथामें छद्मस्थपनेमें भगवान्के एक वार भी प्रमाद सेवन करनेका निषेध किया है और यह बात साक्षात महावीर स्वामीसे सुनकर ही सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कही थी इस लिये इस बातको न मानकर भगवानमें प्रमाद सेवन करनेका दोष लगाना केवलीके वाक्यका न मानने रूप मिथ्यात्वका स्पर्श करना है परन्तु दीर्घ संसारी जीव केवलीके वाक्यका तिरस्कार करनेमें शंका नहीं करते । आचारांग सूत्रके प्रमाणसे जब कि भगवानके न चलने की बात स्पष्ट सिद्ध होती है तब इसपर पर्दा डालनेके लिये जीतमलजीने अपने मनसे गढ़ कर यह बतलाया है कि 'गोतम स्वामीसे भगवानने १२ वर्ष और तेरह पक्ष तक पाप नहीं लगनेकी बात नहीं कही है।"
अस्तु, भगवानने गोतम स्वामीसे नहीं कही परन्तु सुधर्मा स्वामीसे तो कही है फिर तुम इसे क्यों नहीं मानते ? वात तो सच्ची ही है। सच्ची बातको छिपानेके लिये अपने मनसे उसमें एक मिथ्या बात लगा देना कहांका पाण्डित्य है ?
(बोल १८ समाप्त) (प्रेरक) ____ भगवानको छास्थपनेमें दश स्वप्न आये थे उस समय अन्तर्मुहूतं तक भगवानको निद्रा आई थी। निद्रा लेना प्रमादका सेवन करना है फिर आचारांग सूत्रकी गाथामें यह क्यों कहा गया कि भगवानने छद्मस्थपनेमें एक वार भी प्रमादका सेवन नहीं किया था ? (प्ररूपक) - भगवान महावीर स्वामीको दश स्वप्न आये थे उस समय अन्तर्मुहूर्त तक उन्हें निद्रा भी आई थी पर वह निद्रा द्रव्य निद्रा थी भाव निद्रा नहीं। मिथ्यात्व और अज्ञान को शास्त्रमें भाव निद्रा कहा है। केवल सोने मात्रको नहीं केवल सोना तो द्रव्य निद्रा है उसे शास्त्रीय विधानानुसार लेता हुआ साधु दोषका सेवन करने वाला नहीं होता। यह बात भ्रमविध्वंसनकारको भी मान्य है उन्होंने लिखा है कि "तिहां भाव निद्राथी तो पाप लागे छै अने द्रव्य निद्राथी तो जीव दबे छै"
(भ्र०पृ० ४०९) अतः भगवानको द्रव्य निद्रा लेनेसे प्रमादका सेवन करने वाला नहीं कहा जा सकता है। अतः आचारांग सूत्रकी पूर्वोक्त गाथामें जो भगवानको एक बार भी प्रमाद सेवन नहीं करनेका कथन है वह अक्षरशः यथार्थ है उसे न मान कर भगवानके चूक जानेका या प्रमाद सेवन करनेका दुराग्रह करना मिथ्या दृष्टियोंका कार्य है।
(बोल १९ वां) इति प्रायश्चित्ताधिकारः।
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