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लेश्याधिकारः।
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यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय बतलाते हुए साधुओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका साफ साफ निषेध किया है इसलिये साधुओंमें तेजः पन और .. और शुक्ल, ये तीन भाव लेश्या ही होती हैं कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्या नहीं अतः साधुओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका सद्भाव बताना उक्त मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये।
(बोल १ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २४२ पर लिखते हैं
"अथ अठे ओधिक पाठ करो-तिणमें संयतिरा भेद प्रमादी अप्रमादी किया। भने कृष्ण नील कापोत लेश्याने मोधिकनो पाठ कह्यो तिम कहिवो पिण एतलो विशेष संयतिरा प्रमादी अप्रमादी ए दो भेद न करवा ते किम् प्रमत्तमें कृष्णादिक तीन लेश्या हुवे अने अप्रमत्तमें न हुवे ते मांटे दो भेद वा " (भ्र० पृ० २४२)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवतीजीके उक्त मूल पाठमें “पमत्ता पमत्तान भाणियब्वा" यह जो वाक्य माया है उसका टीकानुसार यही अर्थ है कि कृष्ण नील और कापोत, इन तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके साधु नहीं होते किन्तु साधुसे भिन्न जीव इनमें होते हैं । अतः कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें प्रमादी साधुका सदभाव बताना मिथ्या है।
यदि शास्त्रकारको उक्त तीन भाव लेश्याओंमें केवल अप्रमादीको ही वर्जित करना इष्ट होता तो वह “पमत्ता पमत्ता नभाणियब्वा" ऐसा नहीं लिख कर "अपमत्ता नभाणियव्वा" यही लिख देते। इस प्रकार लिखनेसे कृष्णाहि तीन भाव लेश्याओं में प्रमादीका होना और अप्रमादीका न होना साफ साफ मालूम हो जाता परन्तु शास्त्रकार ने ऐसा नहीं लिख कर "पमत्ता पमत्ता नमाणियवा" यह लिखा है इसका तात्पर्यो यही है कि कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके संयत नहीं होते और टीकाकारने भी मूल पाठका यही अर्थ स्पष्टरूपसे बतलाया है तथा इस पाठका टब्वा मर्थ भी कृष्णादि तीन भाव लेश्यामोंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों प्रकार के संयतोंका निषेध करता है वह टम्ना अर्थ यह है- "एतलो विशेष प्रमत्त अप्रमत्त वर्जित कहिवा । कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याने विषे संयतपणो न थी"
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