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लेश्याधिकारः ।
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चाहिये केवल इतना विशेष है कि इनमें सरागी और वीतरागी न कहने चाहिये। यह उक्त मूल पाठका अर्थ है ।
इसमें कृष्ण, नील ओर कापोत लेश्याओंमें सरागी वीतरागी प्रमादी और मप्रमादी चारों प्रकारके संयत ( साधु ) वर्जित किये गये हैं इस लिये कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याएं साधुओंमें नहीं होतीं यह स्पष्ट सिद्ध होता है अतः जो लोग संयतियोंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करते हैं उन्हें उत्सूत्रवादी जानना चाहिये ।
( बोल २ समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २४६ पर इसी पाठको लिख कर इसकी समाछोचना करते हुए लिखते है
"सरागी वीतरागी प्रमादी अप्रमादी भेद कृष्ण नील संयति मनुष्यरा न हुवे aarit अने अप्रमादीमें कृष्ण नील लेश्या न हुवे ते मांटे दो दो भेद न हुवे । सरागीमें तो कृष्ण नील लेश्या हुवे परं वीतरागीमें न हुवे ते मांटे संयतिरा दो भेद सरागी वीतरागी न करवा । अने प्रमादीमें तो कृष्ण नील लेश्या हुवे परं अप्रमादीमें न हुवे ते मांटे सरागीरा दो भेद प्रमादी अप्रमादी न करवा । इण न्याय कृष्ण नील रेशी संयतिरा सरागी ari प्रमादी अप्रमादी भेद करवा वर्ज्या परं संयति वयों नहीं संयतिमें कृष्ण नील लेश्या छे। अने संयतिमें कृष्णादिक न हुवे तो इमि कहिता 'संजया न भाणियव्वा " इत्यादि ।
इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयति पुरुष नहीं होते क्योंकि अप्रशस्त भाव देश्याओंमें संयम नहीं होता इस लिये भगवतीके उक्त पाठमें कृष्णादिक तीन मप्रशस्त भाव लेश्याओंमें सरागी, वीतरागी, प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके संयतियों का होना निषेध किया है, केवल संयतियोंके भेदका ही निषेध नहीं किया है यहां पाठका भाव यह नहीं है कि प्रमादी और सरागीमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्यायें पायी जाती हैं और अप्रमादी तथा वीतरागीमें नहीं पायी जातीं क्योंकि इसी मूल पाठमें आगे चलकर कहा है कि "तेजः पद्म लेश्याओंमें सरागी और वीतरागी दोनों ही प्रकारके साधु नहीं होते" इसका तात्पर्य यही है कि सरागी
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