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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३५ पर लिखते हैं
"अने कई एक पाखण्डी कहे गोतमने भगवान कहो हे गोतम ! बारह वर्ष तेरह पक्षमें मोने किश्चिन्मात्र पाप लाग्यो नहीं ते झूठरा बोलनहार छै" (भ्र० पृ० २५५)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
बारह वर्ष और तेरह पक्षमें दोष नहीं लगनेकी बात भगवान्ने सुधर्मा स्वामीसे कही थी और सुधर्मा स्वामीने यह बात भगवानसे सुन कर जम्बू स्वामीसे आचारांगमें कही है। आचारांग सूत्रके प्रथम श्रुत स्कन्धके नवम अध्ययनमें पहले पहल सुधर्मा स्वामी ने कहा है
"अहा सुयं वइस्सामि" अर्थात् जैसा मैंने सुना था वैसा ही कहूंगा। इससे ज्ञात होता है कि सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीके मुखसे उनके छयास्थावस्थाका वृत्तान्त सुन कर उसका वर्णन आचारांग सूत्रमें जम्बू स्वामीसे किया है। अतएव आचारांगके आरम्भमें ही यह लिखा है कि "सुर्यमे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय" अर्थात 'हे आयुष्मन ! भगवान महावीर स्वामीने ऐसा कहा था यह मैंने सुना है' इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे सुनी हुई बातोंका ही भाचारांगमें जम्बू स्वामोसे वर्णन किया है अतः सुधर्मा स्वामीकी आचारांगमें कही हुई सब बातें भगवानकी ही कही हुई समझनी चाहिये। उन बातोंको न मानना सुधर्मा स्वामीकी ही नहीं किन्तु साक्षात् तीर्थ करकी बातको न मानना है। आचारांग सूत्रमें सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कहा है कि- "एएहिं मुणी सपणेहिं समणे असिय तेरस वासे । राइदियंपि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाइ"
(याचारांग श्रु० १ ० ९ उ० २ गाथा ४) __ अर्थात मुनि भगवान् महावीर स्वामी इन स्थानोंपर निवास करते हुए तेरहवें पर्ष पर्यन्त रात दिन संयमके अनुष्ठान में प्रवृत्त रहते थे और प्रमाद रहित होकर धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान करते थे।
___ इस पाठमें तेरहवें वर्ष पर्यन्त भगवानको प्रमाद रहित होकर रहना लिखा है। तथा आगे चलकर एक वार भी प्रमाद करनेका निषेध किया है। वह गाथा यह है
"अकसाई विगयगेही सदस्वेसु अमूच्छिए झाई। एउमत्थोषि परफाममाणो न पमायं सहवि कुव्वीत्या"
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