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सद्धमैमण्डनमः
गमात्" अर्थात जिस समय भगवानने गोशालकको स्वीकार किया था उस समय गोशालक अयोग्य नहीं था किन्तु पीछे अयोग्य हुआ इस बातकी खबर भगवानको नहीं थी क्योंकि भगवान छमस्थ होनेके कारण भावी दोषको नहीं जानते थे।
यह लिखकर टीकाकार भगवानके चूकनेका स्पष्ट रूपसे निषेध कर रहे हैं। क्योंकि भविष्य कालका दोष नहीं मानने वाला कोई पुरुष वर्तमान कालमें किसीको अयोग्य नहीं जान कर यदि उसपर स्नेहके साथ अनुकम्पा करे तो इसमें उसका क्या दोष है ? अत: भविष्य कालके दोषको नहीं जान कर भगवानने गोशालकको स्वीकार किया था यह भगवानका चूकना नहीं किन्तु दयालुता है। इसके आगे टीकाकारने भगवानके दोषका खण्डन करनेके लिये तीसरा हेतु अवश्य होनहार बतलाया है जो पहले लिख दिया गया है। यह तीसरा देतु इस लिये दिया गया है कि पहलेके दो हेतुओंमें अरुचि है। पहले हेतुमें अरुचि यह है कि “गोशालक अयोग्य था उसपर भगवानने स्नेह क्यों किया ?" इस अरुचिके कारण पहला हेतुको छोड़ कर टीकाकार दूसरा हेतु बतलाते हैं कि गोशालकके भविष्यमें अयोग्य होनेका भगवानको ज्ञान नहीं था क्योंकि वह उमस्थ थे इस लिये भगवानने गोशालकको स्वीकार किया। इस हेतुमें भी यह अरुचि आती है कि भगवान छद्मस्थ होकर भी भविष्यकी बात जान सकते थे जैसे कि उन्होंने गोशालकको बतलाया था कि इस तिलमें इतने दाने होंगे इत्यादि । अतः टीकाकारने पूर्व के दोनों हेतुओंसे सन्तुष्ट न होकर तीसरी हेतु दिया है और तीसरा हेतु देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि गोशालकको भगवानके द्वारा स्वीकार किया जाना अवश्य होनहार था इस लिये इसमें भगवानका कुछ भी दोष नहीं है । आगम व्यवहारी पुरुष भावी बातको अपने ज्ञान द्वारा जान कर उसका अनुष्ठान करते हैं इसमें उनका कुछ दोष नहीं होता जैसे कि केवल ज्ञान होनेपर भावीको जानकर ही भगवानने जामालीको दीक्षा दी थी उसी तरह गोशालकके विषयमें भी समझना चाहिये । अत: भगवती शतक १५ की टीका
नोट-भगवती शतक १५ की टीकामें भगवान के दोषका खण्डन किया है चूक जाना नहीं बतलाया है अन्यथा टीकाकार गोशालकको स्वीकार करना अवश्यम्भावी भाव क्यों बतलाते । पहलेके दो हेतुओंसे भी यही बात कही है उनसे भी दोषका खण्डन ही किया गया है समर्थन नहीं । क्योंकि एक ही विषयमें टीकाकार दो राय नहीं दे सकते यदि दो राय देवें तो स्थाणुर्वा पुरुषोवा की तरह उनकी बात संशयात्मक होनेसे प्रमाण नहीं हो सकती।
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