________________
प्रायश्चित्ताधधिकारः।
. ऊपर लिखे हुए जीतमलजीके लेखमें आगम व्यवहारके होनेपर सूत्र व्यवहारका उपयोग नहीं किया जाना साफ साफ लिखा है और महावीर स्वामीके समयमें आगम व्यवहारका ही उपयोग होना भी लिखा है तथापि 'सूत्र व्यवहारानुसार भगवानमें दोष कायम करना इनका अपने कथनसे ही विरुद्ध समझना चाहिये।
बोल १५ समाप्त
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २२४ पर भगवती शतक १५ वें की टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ टीकामें पिण कह्यो ए अयोग्यने भगवान अंगीकार कियो ते अक्षीण रागपणे करी तेहना परिचय करी स्नेह मनुकम्पाना सद्भावथी अने छद्मस्थ छै ते मांटे आगामियां कालाना दोषना अजाण थकी अंगीकार कीधो कह्यो राग परिचय स्नेह अनुकम्पा कही ते स्नेह अनुकम्पा कहो अने भावे मोह अनुकम्पा कहो जो एकार्य करवायोग्य हुवे तो इम क्यांने कहिता"
(भ्र० पृ० २२४ ) , __इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
___भगवती सूत्र शतक १५ वे की टोकासे महावीर स्वामीका चकना नहीं सिद्ध होता क्योंकि वहां टीकाकारने लिखा है कि "अवश्यंभाविभावत्वाच्चतस्यार्थस्येति विभावनीयम्" अर्थात भगवानसे गोशालकका स्वीकार किया जाना अवश्य होनहार था इस लिये भगवानने उसे स्वीकार किया। यह लिखकर टीकाकारने भगवानको चक जाने का स्पष्ट रूपसे निषेध किया है तथापि इस टीकाके आश्रयसे भगवानको चूकनेकी सिद्धि करना अज्ञान है।
यदि कोई कहे कि इस टीकामें गोशालकको स्वीकार करनेके दो कारण और भी बतलाये हैं। पहले तो गोशालकके ऊपर स्नेहके साथ अनुकम्पा करना कारण कहा है और साधुका किसी पर स्नेह करना गुण नहीं किन्तु दोष है तो उसे कहना चाहिये कि अनुकम्पाके ऊपर तथा अपने धर्म, धर्माचार्य और अपने सहधर्मी भाइयोंपर स्नेह करना बुरा नहीं किन्तु गुण है। शास्त्रमें चोरी जारी हिंसा और झूठ आदिमें स्नेह करना ही बुरा कहा है गुणके साथ स्नेह करना बुरा नहीं कहा है अतः गोशालकके ऊपर जो भगवानने स्नेहयुक्त अनुकम्पा की थी उसे सावध कहना अज्ञानका परिणाम है ।
यदि कोई कहे कि गोशालक अयोग्य व्यक्ति था उसपर स्नेह करना अवश्य बुरा था" तो इसका उत्तर देते हुए टीकाकार लिखते हैं कि “छद्मस्थतयानाऽगत दोषाऽनव
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com