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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १८८ पर ठाणांग सूत्र ठाणा ७ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अथ अठे पिण इम क्ह्यो सात प्रकारे छद्मस्थ जाणिये अने सात प्रकार वली जानिए । केवली तो ए सातुइ दोष न सेवे ते भगी न चूके अने छद्मस्थ सात दोष सेवे छै" (भ्र० पृ० १८८)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग ठाणा सातके मूलपाठसे भगवान महावीर स्वामीका दोष सेवन करना नहीं सिद्ध होता है क्योंकि सभी उमस्थ दोषके प्रतिसेवी होते ही हैं ऐसा कोई नियम ठाणाङ्ग ठाणा सातमें नहीं कहा है। वहांके मूलपाठका यही आशय है कि छद्मस्थोंमें सात दोषों का सम्भव होता है केवलियोंमें नहीं । सातवें गुग स्थानसे लेकर बारहवें गुण स्थान तक के जीव छद्मस्थ ही होते हैं परन्तु वे दोषोंका सेवन नहीं करते क्योंकि उनका परिणाम बहुत ही निर्मल होता है उसी तरह छट्ठा गुण स्थान वाले जो विशिष्ट निमल परिणामके धनी होते हैं वे भी दोषके प्रतिसेवो नहीं होते । यह बात भ्रमविध्वंसनकारने भी भ्र० पृ० २१४ पर लिखो है जैसे कि:
___"अने छ गुण ठाणे पिण अत्यन्त विशिष्ट निर्मल परिणामनो धगी शुभयोगमें प्रवतें है" - भगवान् महावीर स्वामी षष्ठ गुण स्थानमें अतिविशिष्ट निर्मल परिणामके धनी थे इसलिये वह दोषके प्रतिसेवी नहीं थे। भगवान् महावीर स्वामी छमस्थ दशामें प्रति विशिष्ट निर्मल परिणामके धनी थे यह बात प्रमाणके साथ पहले कही जा चुकी है और याचारांग सूत्रकी गाथाओंको लिख कर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया गया है कि भगवान् महावीर स्वामोने छमस्थ दशामें स्वल्प भी पाप और एक बार भी प्रमादका सेवन नहीं किया था अतः ठाणाङ्ग ठाणा सातके मूलपाठका नाम लेकर भगवान में चूक होनेकी प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये । .... यदि कोई दुराग्रही सभी छद्मस्थोंमें सात दोषोंका अवश्य सद्भाव बतावे तो उसे कहना चाहिये कि छद्मस्थ तो सातवें गुणस्थान वाले तथा ८ । ९ । १० । ११ और बारहवें गुण स्थान वाले भी होते हैं फिर तुम उन्हें भी दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं मान लेते ? । यदि सातवें आठवें आदि गुण स्थान वाले अति विशिष्ट निर्मल परिणामके धनी होनेसे दोषका प्रतिसेवी नहीं होते तो उसी तरह षष्ठ गुण स्थान वाला भी मतिविशिष्ट
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