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सद्धर्ममण्डनम् ।
को भी शास्त्रकार दोषका प्रतिसेवी बतलाते परन्तु शास्त्रकारने साफ साफ कषाय कुशील को दोषका अप्रतिसेवी बतलाया है इस लिये कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतलाना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये।
[बोल १० वां समाप्त ]]
(प्रेरक)
___ भ्रम विध्वंसन कारका कहना है कि "जैसे भगवती सत्र शतक १६ उद्दशा ६ में संवृत (साधु ) को यथार्थ स्वप्न आना कहा है और उसीको आवश्यक सूत्रमें मिथ्या स्वप्न भी आना कहा है इसलिये जैसे संवृत साधु दो तरहके होते हैं एक सच्चा स्वप्न देखनेवाले और एक झूठा स्वप्न देखनेवाले, उसी तरह कषाय कुशील भी दो तरह के होते हैं एक दोषका प्रतिसेवन नहीं करने वाले और दूसरे दोषका प्रतिसेवन करने वाले।
इसका क्या समाधान ? - (प्ररूपक)
संवुडा साधुका दृष्टान्त्र देकर कषाय कुशीलको दो तरहका बतलाना अज्ञान है। जिस संवुडा साधुका नाम लेकर भगवती शतक १६ उद्देशा ६ में सच्चा स्वप्न देखना कहा है उसी संवुडाका नाम लेकर आवश्यक सूत्रके चौथे अध्ययनमें मिथ्या स्वप्न देखना भी कहा है इस लिये संवुडा साधुका द्विविध होना शास्त्रसे ही सिद्ध होता है परन्तु कषाय कुशीलका द्विविध होना शास्त्रसे नहीं सिद्ध होता क्योंकि जिस कषाय कुशोलका नाम लेकर भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में दोष का अप्रतिसेवी कहा है फिर उसी कषाय कुशील का नाम लेकर शास्त्रमें कहीं दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा है अतः संघुडाकी तरह कषाय कुशील को दो तरहका बतलाना अप्रमाणिक है। (प्रेरक)
भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २१७ पर भगवती शतक ५ उद्देशा ४ का मूल पाठ लिख कर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अश्न इहा कटो-अनुत्तर विमानरा देवता उदीर्ण मोह नथी अने क्षीण मोह नथी उपशान्त मोह छ, इम कयो । इहां मोइने उपशमायो कयो । अने उपशान्त मोहतो ११वें गुण ठाणे छै अने देवता तो चौथे गुण ठाणे छै विहांतो मोहनो उदय छै तेह थी समय समय सात २ कर्म लागे छ । मोहनो उदयतो दशमें गुणठाणे ताई छे अने इहां तो देवता ने उपशान्त मोह कयो ते उत्कद वेद मोहनी आश्री कयो तिहां देवताने परिचारणा नथी
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