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सेद्धममण्डनम् ।
इस पद्यमें जीतमलजी कहते हैं कि छः साधुओंका जन्म भर भीषणजीमें परम प्रेम था। क्या यह सरागताका कार्य नहीं है ? यदि है तो जीतमलजी और उनके अनुयायी इसे पाप क्यों नहीं मानते ? यदि अपने धर्माचाय्य और धर्ममें राग रखना सरागताका कार्य होने पर भी पाप नहीं है तो फिर जीवदया राग रखना पापका काय्य कैसे हो सकता है ? । अत: सरागताके सभी कार्यों को पाप बतला कर भगवान महावीर स्वामीने दयाके प्रेमसे जो ग शालककी प्राणरक्षा की थी उसमें पाप बताना नितान्त मिथ्या समझना चाहिये ।
भगवती सूत्रकी जिस टीकाको लिख कर जीतमलजीने भ्रम फैलाया है उसे लिख कर उसका अर्थ किया जाता है जिससे जनताका भ्रम दूर हो जाय ।
"इहच यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः । यच्च सुनक्षत्र सर्वानुभूति मुनिपुंगवयोर्न करिष्यति सद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वा दवश्यं भावि भाव त्वात्यवसेयम्” (भग० टीका) अर्थः
यहां भगवान ने जो गोशालककी प्राणरक्षा की थी इसका कारण यह है कि सराग संयमी होनेके कारण भगवान बड़े भारी दयाके प्रेमी थे। सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा जो नहीं करेंगे इसका कारण वीतराग होनेसे लब्धिका प्रयोग न करना, और गोशालकके द्वारा उनके मरणका अवश्य होनहार होना समझना चाहिये। यह उक्त टीकाका अक्षरार्थ है।
इसी टीकाका नाम लेकर जीतमलजी जीवरक्षामें पाप बतलाते हैं परन्तु इस टोका में जीवरक्षा करनेसे पाप होना नहीं कहा है। यहां लिखा है कि-"भगवान ने दयामें परमानुराग होनेके कारण गोशालकी रक्षा की थी"। दयामें अनुराग रखना धर्म है पाप नहीं है इसलिये गोशालकी प्राणरक्षा करनेसे भगवान को धर्म हुआ पाप नहीं हुआ।
___ सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं करनेका कारण भी टीकाकारने जोवरक्षा करनेमें पाप होना नहीं कहा है किन्तु उस समय वीतराग होनेके कारण भगवान के लब्धिका प्रयोग नहीं करना, और अवश्य होनहार कारण बतलाया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जीवरक्षामें पाप जानकर भगवान ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षाका प्रयत्न नहीं छोड़ा' था किंतु वीतराग होने के कारण वह लब्धि का प्रयोग नहीं करते थे । यद्यपि लब्धिका प्रयोग किये बिना भी वहांसे सुनक्षत्र और सर्वानुभूति को विहार आदि कराकर भगवान उनकी रक्षा कर सकते थे तथापि यह बात अवश्य होने बाली थी इसलिये भगवान ने उनको रक्षाके लिये प्रयत्न नहीं किया। अतएव टीकाकार
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