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प्रायश्चित्ताद्यधिकारः ।
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पितृ शोकाकुल होकर राजगृह को छोड़ कर चम्पानगरीमें आया था। उस समय उसे माता पिताका विनीत कहना ठीक ही है परन्तु उस पाठमें यह नहीं कहा है कि कौणिक राजाने माता पिता के साथ कभी भी अविनय नहीं किया था। इसलिये उवाई सूत्रके इस पाठसे कौणिक अविनयी होनेका निषेध नहीं किया जा सकता परन्तु भगवान महावीर स्वामीके विषय में जो आचारांग सूत्रमें गाथाएं कही गई हैं उनमें साफ़ साफ भग
में पाप और प्रमाद होनेका निषेध किया गया है ऐसी दशामें यह कैसे कहा जा सकता है कि भगवान में पाप और प्रमाद थे" क्योंकि यह कहना प्रत्यक्ष ही शाखसे विपरीत बोलना है अतः कौणिक वाले पाठके उदाहरण से भगवान में पाप और प्रमादका स्थापन करना उत्सूत्रवादियों का कार्य समझना चाहिये ।
[ बोल छट्ठा समाप्त ]
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३४ पर उनाई सूत्र प्रश्न २० का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
“ अथ अठे श्रावकने धर्मरा करणहार कला ते तो स्यूं अधर्म न करे कांई । वा णिज्य, व्यापार, संग्राम आदिक अधर्म छै ते अधर्म ना करणहार है । पिग ते श्रत्रका गुण 'वर्णन में अवगुण किम कहे" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं “तिम भगवान रे गुण वर्णन में लब्धिफोडीने अवगुण ना वर्णन किम करे" ( ० पृ० २३४ )
इसका क्या उत्तर ?
( प्ररूपक )
उबाई सूत्रमें श्रावकों के सम्बन्धमें जो पाठ आया है उसका उदाहरण देकर भगवान महावीर स्वामीमें पाप और प्रमादका स्थापन करना मिथ्या है । उवाई सूत्र श्रावक सम्बन्धी पाठमें साफ साफ लिखा है कि श्रावक अट्ठारह पापोंसे देशसे हटे हुए और देशसे नहीं हटे हुए होते हैं इसलिये इस पाठसे ही श्रावकों का देशसे पाप सेवन करना सिद्ध होता है परन्तु भगवान के विषय में जो आचारांग गाथाएं कही हैं उन में स्वल्प भी पाप और एक बार भी प्रमाद सेवन करने का निषेध किया है अतः श्रावक सम्बन्धी पाठके उदाहरणसे भगवान में पाप और प्रमाद का स्थापन करना ज्ञान है ।
दूसरी बात यह है कि भगवान् महावीर स्वामी दीक्षा लेनेके बाद छद्मस्थदशामें कषायकुशील निबंध थे । कषाय कुशील निप्रथ, मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं
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