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सद्धर्ममण्डनम् ।
"तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अन्तेवासी इन्दभूइ नाम अणगारे गोयम गोत्तेणं सत्तुसेहे समचउरंससंहाणसंहिए वज्जरिसहनारायसंघमणे कणकपुलकणिघस पह्म गोरे उग्गतवे दित्ततवे घोर तवे उराले घोर गुणे घोर तवस्सी घोर वंभचेर वासी उच्छूट सरीरे संखित्त विउल तेउलेरसे छ8 छठेणं अणिखिनेणं तवोपक्रमेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे वि
( उपासक दशांग) इस पाठमें भगवती सूत्रोक्त गोतम स्वामीके "चउद्दस पूवी" "चउण्णाणोवगए" "सव्वक्खर संन्निवाई” इन तीन विशेषगोंको छोड़ कर बाकी सभी विशेषग कहे गये हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिस समय गोतम स्वामी आनन्दके घर पर गये थे उस समय उनमें चौदह पूर्व और चार ज्ञान नहीं थे। यदि भगवतीमें कहे जानेके कारण इन तीन विशेषणोंका कथन उपासक दशांगके इस पाठमें न माना जाय तो फिर उपासक दशांग सूत्रमें अन्य विशेषगोंका कथन भी नहीं होना चाहिये क्योंकि भगवती में ये सभी कहे जा चुके हैं अतः जिस अवस्थाका गुग वर्णन करनेके लिये उपासक दशांगका पाठ कहा गया है उस समय गोतम स्वामीमें चार ज्ञान और चौदह पूर्व नहीं थे यही बात सिद्ध होती है।
जो बातें पूर्वके अङ्गोंमें वर्णन की गई हैं वे सभी उत्तरके अङ्गोंमें समझी जायं ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि आचारांग सूत्रके दूसरे श्रुत स्कन्धमें भगवान महावीर स्वामीके केवल ज्ञान उत्पन्न होनेका वर्णन किया गया है तथापि भगवती सूत्रके १५ वें शतकमें प्रसङ्गवश फिर भी भगवान के छद्मस्थपनेका वर्णन है । भगवती पांचवां अङ्ग है और आचाराङ्ग पहला है। उसी तरह भगवतीमें गोतम स्वामीके चार ज्ञान और चौदह पूर्वका वर्णन होने पर भी प्रसङ्गवश उपासक दशांग सूत्र में गोतम स्वामीके चार ज्ञान और चोदह पूर्व न होनेके समयकी वात कही गयी है।
यदि भगवतीमें कहे हुए गोतम स्वामीके सभी गुणोंको उपासक दशांग सूत्रमें बतलाना होता तो “जाव" शब्दसे भगवतीके पाठका संकोच करके उपासक दशांग सूत्र में में इस तरह कह देते कि "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस भगओ महावीरस्स जेठे अन्तेवासी इंदभूई नाम अनगारे जाव विहरइ" परन्तु शास्त्रकारको भगवतीमें कहे हुए सभी विशेषणोंके ग्रहंग करने की आवश्यकता नहीं थी अतएव जाव शब्दसे भगवती
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