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( अथ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः )
( प्रेरक )
मरते जीवकी रक्षा करनेका समर्थन करने वाले मुनियोंका कहना है कि भगवान महावीर स्वामी को यदि गोशालककी रक्षा करनेमें पाप लगा होता तो उस पारकी निवृत्ति के लिये भगवान प्रायश्चित्त भी करते परन्तु इसके लिये भगवानका प्रायश्चित्त करना शास्त्रमें नहीं कहा है अतः शीतल लेश्याको प्रकट करके गोशालक की रक्षा करनेसे भगवान पर पापका आरोप करना मिथ्या है। इस कथनका खण्डन करनेके लिये जीतमलजी लिखते हैं
“अथ ईहां सीहो अनगार ध्यान ध्यावतां मनमें मानसिक दुःख अत्यन्त उपनो माया कच्छ जाई मोटे मोटे शब्दे रोयो बांग पाडी एहवो कह्यो पिण तेहनो प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी तिम भगवन्त लब्धि फोडी गोशालाने बचायो तेहनी प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी” (भ्र० पृ० १९६ )
इसी तरह भ्रम० पृ० २०८ तक अति मुक्त अनगार रहनेमि, धर्म घोषका शिष्य सुमंगल अनगार, ओर सेलक इन लोगोंका उदाहरण देकर जीतमलजीने कहा है कि उक्त साधुओं जैसे प्रायश्चित्तके योग्य कार्य किये थे परन्तु शास्त्रमें इनका प्रायश्चित्त करना नहीं कहा है उसी तरह भगवान महावीर स्वामीका भी प्रायश्चित करना नहीं कहा है परन्तु जैसे उक्त साधुओंने प्रायश्चित्त किया ही होगा उसी तरह भगवानने भी प्रायश्चित्त किया होगा ।
इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
शास्त्र विधवादमें जिस कार्य्यके करनेसे पाप होना कहा है उन्हींके अनुष्ठान से पाप होता है और उन्हीं के लिये प्रायश्चित्त भी कहा गया है परन्तु जिस कार्य्यके करने से शास्त्रकार पाप नहीं बतलाते और प्रायश्चित्त का विधान भी नहीं करते उस कार्य में पाप कहना और उसके लिये प्रायचित्त की कल्पना करना अज्ञानका परिणाम है। शीतल लेश्या के प्रयोग करनेसे शास्त्रमें कहीं भी पाप होना नहीं कहा है और इसके लिये कहीं प्रायश्चितका विधान भी नहीं है ऐसी दशामें शीतल लेश्याका प्रयोग करनेसे भगवानको पाप होने और उस पापकी निवृत्तिके लिये उनके प्रायश्चित्त करनेकी कल्पना करना निमूल
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