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सद्धमैमण्डनम्। समझना चाहिए । शीतललेश्याको प्रकट करके गोशालाको प्रागरक्षा करनेसे भगवानको पाप हुआ ही नहीं धर्म हुआ फिर वह प्रायश्चित्त क्यों करते ? जिस जिसने शास्त्रानुसार प्रायश्चित्तका कार्य किया था उसके प्रायश्चित्त करने का वर्णन यदि शास्त्रमें नहीं है तो उसकी कल्पना की जा सकती है परन्तु जिसने प्रायश्चित्तके योग्य कार्य ही नहीं किया था उसके प्रायश्चित्त करने की कल्पना तो बिलकुल निराधार और उन्मत्त प्रलापकी तरह सर्वथा अनादरणीय है।
... जीतमलजीने भ्रम० पृ० २०८ के अनन्तर जो नियंठाका विचार किया है उसके हिसाबसे भी भगवान महावीर स्वामी दोषके अप्रतिसेती ही सिद्ध होते हैं क्योंकि कषाय कुशील निपथ मूल गुग और उत्तर गुगका अप्रति लेवो होता है और छमस्थ तीर्थ कर दीक्षा लेनेके बाद कषाय कुशाल ही होते हैं अतः भगवान महावीर स्वामीको दोष का प्रतिसेवी बतलाना मिथ्या है।
बोल १ समाप्त (प्रेरक ) _भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २१४ पर लिखते हैं
"एकषाय कुशील नियंठाने अपडिसेवी कह्यो ते मप्रमत्त तुल्य अपडिसेवी अणाय छै। कषाय कुशीलमें गुण ठाणा ५ छै छट्ठाथी दशमां ताई तिहां मातमें आठमें नवमें दशमें गुणठाणे अत्यन्त विशुद्ध, निर्मल चारित्र छ। ते अपडिसेवी छै। अने छठे गुणठाणे अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणामनो धणी शुभयोम में प्रवर्ते छै ते अपडिसेवी छै"
इत्यादि लिख कर भगवान महावीर स्वामीको अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणाम का धनी नहीं मान कर उनको दोषका प्रतिसेवी बतलाते हैं।
___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भ्रमविध्वंसनकार अपने इस लेखमें षष्ठ गुण स्थान वाले निमल परिणामके धनी को दोषका अप्रतिसेवी बतलाते हैं इसलिये इनके इस लेखसे भी भगवान महावीर स्वामी दोषके अप्रतिसेवी ही सिद्ध होते हैं क्योंकि आचारांग सूत्रके मूल पाठमें छद्मस्थावस्था में भी भगवान महावीर स्वामीको अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणामका धनी कहा है। वह आचारांगका पाठ यह है:
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