________________
३१०
सद्धर्ममण्डनम् ।
मिथ्या है। यदि गोशालककी प्राणरक्षा करना, प्रमाद सेवन और पापाचरण होता तो इन गाथाओंमें भगवान के पापाचरण और प्रमाद सेवन करने का खण्डन कैसे किया जाता ? अतः गोशालककी प्राण रक्षा करनेसे भगवान्को पापी ओर प्रमादी कहना अज्ञान है। यदि कोई कहे कि ये गाथायें गणधरों की कही हुई हैं तीर्थंकरकी नहीं । इस लिये ये प्रमाण नहीं हो सकतीं तो उसे कहना चाहिये कि गगधरोंने तीर्थंकरोंसे सुन कर ही शास्त्र की रचना की है । आर्य्य सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे जो कुछ सुना था वही इस प्रकरणमें कहा है इस लिये इन गाथाओं को नहीं मानना साक्षात् केवल वाक्यका उल्लङ्घन रूप मिथ्यात्वका स्पर्श करना है। आचारांग सूत्रके इसी अध्ययमके आरम्भमें लिखा है
"सुयं मे आउ तेगं भगवया एवमक्खाई"
अर्थात् हे आयुष्मन् ! भगवान महावीर स्वामीने ऐसा कहा था यह मैंने सुना है तथा इस नवम अध्ययनके आरम्भमें सुधर्मा स्वामीने जब्वू स्वामीसे यह प्रतिज्ञा करते हुए कहा है कि - " अहा सुर्यं वइस्सामि" अर्थात मैंने जैसा सुना है वैसा ही कहूंगा मतः आर्य सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे जैसा सुना था वैसा ही इस प्रकरणमें कहा है अपनी ओरसे एक भी बात बनाकर नहीं कही है अतः आवागंग सूत्रके
म अध्ययनके चौथे उद्दे शेकी आठवीं और पन्द्रहवीं गाथामें कही हुई बातको नहीं मानना साक्षात् केवलीके वाक्यको नहीं मानने रूप मिथ्यात्व का स्पर्श समझना चाहिये ।
( बोल ४ समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३२ पर उबाई सूत्रका मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"जे साधांमे गुण हुन्ता ते वखाण्या परं इम न जाणि ए जे वीर रा साधुरे कदेइ आर्तध्यान आवे इज नहीं मांठा परिणामे क्रोधादिक आवे इज नहीं इम नथी कदाचित् उपयोग चूक दोष लागे पर गुण वर्णनमें अवगुण क्रिम कहे तिम गणधगं भगवान रा गुण क्रिया तिगमें तो गुग इज वर्णव्या जेवलो पाप न कीधो तेहिज आश्री कह्यो परंगुण "अवगुण किम कहे ।" (भ्र० पृ० २३२ )
इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक)
वाई सूत्रका मूल पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com