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प्रायश्चित्ताद्यधिकारः ।
"तपूर्ण समणे भगवं महावीरं वोसिहपत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं बिहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं वंभचेर वासेणं खंतिए मुत्तिए सम्मीइए गुत्तिए तुट्टीए ठाणं कम्मेणं सुचरिय फलनिव्वाण मुत्तिमग्गेणं अध्धाणं भावे माणे विहरइ । एवं विहरमाणहस जेकेइ उवसग्गा समुपज्जंति दिव्वावा माणुसावा तिरिच्छियावा ते सव्वे उवसग्गे समुपन्ने समाणे अणाउले अव्वहिए अदीण माणसे तिविह मणवयण कायगुत्ते सम्मं सहइ खमइ तितिक्ख अहि आहह तओणं समणस्स भगवो महावीरस्स एणं विहारेणं विहर माणस वारस वासा विक्कता तेरस सम्मस्य वासस्स परियाये वहमाणस्स"
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( आचारांग श्र० २ चूलिका ३ भावनाध्ययन )
अर्थ :
इसके अनन्तर अपने शरीरकी ममता छोड़े हुए भगवान् महावीर स्वामी अनुत्तर आलय ( मकान ) से, अनुत्तर बिहार से, अनुत्तर संयम से, अनुत्तर ग्रहण से, अनुत्तर सेवर से, अनुत्तर तपसे, अनुत्तर ब्रह्मचर्य्य से, अनुत्तर क्षांति से, अनुत्तर त्याग से, अनुत्तर समिति से, अनुत्तर गुप्त से, अनुत्तर तुष्टि से, अनुत्तर स्थिति से, अनुत्तर गमन से, सम्यक् आचरण से, मोक्षफलकी प्राप्ति कराने वाले मुक्ति मार्गसे अपनी आत्माको पवित्र करते हुए विचरते थे । इस प्रकार विचरते हुए
को जो कोई दिव्य मानुष और तिच सम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न होता था उसे अनाकुल ( नहीं घबड़ाते हुए) और अदीन मानस होकर सह लेते थे। इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को बारह वर्ष व्यतीत हुए पश्चात् तेरहवें वर्ष के पर्यायमें विद्यमान होने पर भगवानको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है 1
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इस पाठ में भगवान महावीर स्वामीके संयम, ब्रह्मचर्य, तप, क्षांति आदि गुग अनुत्तर यानी सबसे उत्कृष्ट कहे गए हैं इससे सिद्ध होता है कि भगवान महावीर Earat उच्च श्रेणी कषाय कुशील निमन्थ थे वह दोपके प्रतिसेवी नहीं थे अन्यथा इस पाठमें उनके तप ब्रह्मचय्य और संयम आदि अनुत्तर कैसे कहे जाते ? । अतः भगवान. महावीर स्वामी षष्ठ गुण स्थान में व्यस्यन्त विशिष्ट, निर्मल परिणाम के धनी होने के कारण दोष के अप्रतिसेवी थे प्रतिसेवी नहीं थे । तथापि गोशालककी रक्षा करनेके कारण
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