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सद्धममण्डनम् ।
भ्रमविध्वंसनकार मरते जीवकी रक्षा करनेमें पाप कहते हैं परन्तु किसी साधुको विहार करानेमें पाप नहीं कहते ऐसी दशामें भगवान महावीर स्वामीने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको वहांसे विहार क्यों नहीं करा दिया ? क्योंकि केवल ज्ञानी होनेके कारण उन को यह ज्ञान तो अवश्य था कि गोशालक, सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको जलावेगा। ऐसी खवर रहने पर भी भगवान्ने सुनक्षत्र और सर्वाभूतिको जो वहांसे अन्यत्र विहार नहीं कराया इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान को यह भी ज्ञात था कि सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका गोशालककी क्रोधाग्निसे जल कर मरना अवश्य भावी भाव है। इसीसे भगवान ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूति की रक्षा नहीं की थी, रक्षा करनेमें पाप होना जानकर नहीं।
शास्त्रमें कहा है कि तीर्थ करों में ऐसा अतिशय होता है जिस से उनके निवास स्थानसे १५ योजन तक किसी प्रकारका उपद्रव नही होता। सभी प्राणी परस्पर वैर भावको छोड़ कर मित्र मित्रकी तरह रहते हैं । ऐसा विलक्षण भगवान का अतिशय होते हुए भी गोशालकने भगवान महावीर स्वामींके सम्मुख ही सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको जला दिया यह होनहारका ही प्रभाव था । अन्यथा भगवान के अतिशयसे ही यह बात नहीं हो सकती थी। जो अवश्य होनहार था उसे भगवान किस प्रकार मिटा सकते थे ?। गोशालककी क्रोधाग्निसे सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका जलना अवश्य होनहार जान कर भगवान ने उनकी रक्षा के लिये कुछ प्रयत्न नहीं किया था मरते जीवकी रक्षामें पाप होना जानकर नहीं । अतः सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचानेका उदाहरण देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना उक्त टीका तथा प्रश्न व्याकरणादि सूत्रों से विरुद्ध समझना चाहिये।
भ्रमविध्वंसनकार कहते हैं कि "केवल ज्ञानी होनेके कारण यद्यपि भगवान सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका आयुपूर्ण होना जानते थे तथापि गोतमादि छमस्थ मुनियोंको इस वातका ज्ञान न था। यदि रक्षा करनेमें धर्म था तो उन लोगोंने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा क्यों नहीं की ? इससे जाना जाता है कि जीवरक्षा करनेमें धर्म नहीं है” परन्तु भ्रमविध्वंसनकारकी यह बात भी अज्ञानसे खाली नहीं है क्योंकि चौदह पूर्व धारी साधु छद्मस्थ होते हुए भी उपयोग लगाकर आयुपूर्ण होना जान सकते हैं। धर्मघोष मुनिने छमस्थ हो कर भी उपयोग लगा कर धर्मरुचि मुनिका सम्पूर्ण वृत्तांत जान लिया था और उनकी आत्माको सर्वार्थ सिद्ध में देखा था अतः गोतमादि मुनि सुनक्षत्र और सर्वानुभूति का आयु पूर्ण होना नहीं जानते थे यह कहना भी अज्ञानमूलक ही है।
(बोल ५ वां समाप्त)
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