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लब्ध्यधिकारः।
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शीतल लेश्यामें नहीं लगती। अतः शीतल लेश्याके द्वारा भगवान्ने गोशालककी प्राण रक्षा की थी उसमें भगवानको उत्कृष्ट पांच क्रिया लानेकी बात मिथ्या समझनी चाहिये।
(बोल ४ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ ११८ पर लिखते हैं
"अने जो लब्धि फोडी गोशालाने बंचायां धर्म हुए तो केवल ज्ञान उपना पछे गोशाला दोय साधां वाल्या त्यांने क्यून बचायो। जो गोशालाने बंचाया धर्म छ तो दोय साधांने बंचाया घणा धर्म हुवे। विवारे कोई कहे भगवान केवली था सो दोय साधारे बायुषो आयो जाण्यो तिणसून बंचाया इमकहे तेहनो उत्तर जो भगवान केवल ज्ञानी आयुषो आयो जाण्यो तिणसून बंचाया तो और गोतमादिक छमस्थ साधु लब्धि धारी घणाई हुन्ता त्यांने आयुषो आयारी खबर नहीं त्यां साधांने लब्धि फोडीने क्यून बंचाया।
(८० पृ० १८९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
केवल ज्ञान होने पर भगवान महावीर स्वामीने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बंचाया था इस लिये मरते प्राणीको प्राण रक्षा करनेमें पाप बताना मन्द बुद्धिका कार्या है। मूल पाठ तथा टीकामें कहीं भी नहीं कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने में पाप जान कर सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचाया था बल्कि टीकाकारने यह साफ साफ लिख दिया है कि गोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्यम्भावी था इस लिये भगवानने उनकी रक्षा नहीं की। वह टीका
"अवश्यम्भावि भावत्वा द्वेत्यवसेयम्"
अर्थात गोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्य होनहार था इस लिये भगवान उनकी रक्षा नहीं कर सके । यदि रक्षा करनेमें पाप होता तो टीकाकार यह स्पष्ट लिख देते कि जीवरक्षामें पाप होना देख कर भगवानने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं की परन्तु टीकाकारने ऐसा नहीं कह कर सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचानेका कारण अवश्य होनहार बतलाया है अत: गोशालक की प्राणरक्षा करने से भगवानको पाप लगनेकी प्ररूपणा मिथ्या है।
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