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सद्धर्ममण्डनम् ।
"अथ अठे सूर्याभरी नाटक रूपभक्ति कही तेहनी भगवान आज्ञा न दी थी अनुमोदना पिण न कीधी । अने सूर्याभ वन्दना रूप सेवा भक्ति की धी तिहां एहवो पाठ छै। "अब्भगुणगाण मेयं सुरियामा" एवन्दनारूप भक्तिरी म्हारी आज्ञा है इम आज्ञा दीधी अने नाटक रूपभक्ति सावद्य छै ते मांटे आज्ञा न दी धी अनुमोदना पिण न की धी जिम सावध निरवद्य भक्ति छै तिम अनुकम्पा पिण सावध निरवद्य छ । कोई कहे सावद्य अनुकम्पा किहां कही छै तेहणो कहिणो सावध भक्ति किहां कही छै" इसका क्या समाधान ?
(भ्र० पृ० १७५) (प्ररूपक)
राज प्रश्नीय सूत्रका मूल पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है
"तएणं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे हह तुह चित्त माणं दिए परम सोमणो समणं भगवं महावोरं वंदति नमंसति एवं वयासी तुब्भेणं भन्ते ! सबंजाणह सलं पासह सलां कालं जाणह सां कालं पासह सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह जाणंतिणं देवाणुप्पिया! मम पुविंवा पच्छावा ममेयरूवं दिव्वंदेविड्ढिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभागं लद्ध पत्तं अभिसमण्णागयं चेति तं इच्छामिणं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोतमातियोणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविष्टि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभागं दिब्वं वत्तीसति वद्ध नविहि उवदंसित्तए । तएणं समणे भगवं महावीरे सूर्याभेणं देवेणं एवं बुत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्त एयमर्छनो आढाति नोपारिजाणाइ तुसिणिए संचिटई"
(राज प्रश्नीय सूत्र) अर्थ :__ श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे इस प्रकार कहा हुआ सूर्याभ देवता हृष्ट तुष्ट और आनन्दित चित्त होकर भगवान्की बन्दना नमस्कार करके कहने लगा कि हे भगवन् ! आप सब कुछ जानते और देखते हैं । आप सब कालको सब भावोंको जानते और देखते हैं। तथा इस प्रकार की दिव्य देव ऋद्धि देव द्युति और दिव्य देव प्रभाव मुझको सर्वदा प्राप्त है यह भी आप जानते हैं इस लिये आपकी भक्ति पूर्वक मैं गौतमादि निग्रन्थोंको दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव घुति, दिव्य देव प्रभाव और बत्तीस प्रकारकी नाटक विधि दिखलाना चाहता हूं। यह सुन कर भगवान महा
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