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सद्धममण्डनम् ।
लगती हैं रक्षा करने वालेको नहीं लगती। इनका अर्था ठागाङ्ग सूत्र का मूल पाठ देका बताया जाता है।
"काइया किरिया दुविहा पन्नत्ता तंजहा-अनुवरयकायकिरि याचेव दुप्पउत्त कायकिरियाचेव । आहिकरणिया किरिया दुविहापन्नत्ता तंजहा-संजोयणाधिकरणिया चेव निवत्तनाधिकरणिया चेव । पाउसिया किरिया दुविहा पन्नत्ता तंजहा-जीव पाउसिया चेव अजीव पाउसिया चेव । पारियावणियाकिरिया दुविहा पन्नता तंजहा सहत्य पारियावणियाचेव परहत्थपारियावणियाचेव। पाणाइवाय किरिया दुविहा पन्नत्तो तंजहा-सहत्य पाणाइवाय किरियाचेव परहत्थ पाणाइवाय किरिया चेव ।"
(ठाणान ठाणा २) अर्थः
जो क्रिया शरीरसे की जाती है वह कायिकी क्रिया है वह दो तरहकी होती है अनुपरत काय क्रिया और दुष्प्रयुक्त काय क्रिया।
जो क्रिया सावद्य कर्मो से नहीं हटे हुए मिथ्या दृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुषके शरीर से उत्पन्न होकर कर्मवन्धका कारण होती है वह 'अनुपरत काय क्रिया' कहलाती है। प्रमत्त संयत पुरुष, अपने शरीरसे इन्द्रियोंकी इटानिष्ट वस्तुको प्राप्ति और परिहारके लिये जो स्वल्प संवेग
और निर्वेद होनेसे क्रिया करता है वह क्रिया 'दुष्प्रयुक्त काय क्रिया' कहलासी है। अथवा मोक्ष मार्ग के प्रति दुर्व्यवस्थित प्रम त संयत पुरुष, अशुभ मानसिक संकल्पके साथ जो शरीरसे क्रिया करता है वह 'दुष्प्रयुक्त काय क्रिया' है 'आधिकाणिकी क्रिया' दो तरहको है (१) 'संयोगजनाधिकरगिकी (२) निर्वर्तनाधिकरणिको" तलवारमें उसके मूठ जोड़नेकी क्रियाको संयोजनाधिकरणिकी' कहते हैं । तलवार तथा उसके मूठको बनाने की क्रियाको "निर्वतं नाधिकरणिकी क्रिया" कहते हैं।
- जो क्रिया किसी पर द्वष करके की जाती है उसे 'प्रावषिकी' कहते हैं। यह भी दो तरहकी होती है। (१) जीव प्राषिकी और (२) अजीव प्राषिकी। किसी जीव पर द्वष करके जो क्रिया को जाती है वह 'जीव प्राह षिकी' है और जो अजीव पर द्वष करके की जाती है वह 'अजीव प्राद्वोषिकी' है।
किसीको ताडन आदिके द्वारा परिताप देनेको 'पारितापनिकी' क्रिया कहते हैं । यह दो तरह को है 'स्वहस्त पारितापनिको' और 'परहस्त पारितापनिकी' अपने हस्तसे किसीको ताप देना
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