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लब्ध्यधिकारः।
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(प्रेरक)
"तेज: समुद्घात" शब्दका प्रमाणके साथ अर्थ बतलाइये जिससे यह ज्ञात हो जाय कि शीतल लेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुद्घात क्यों नहीं होता ?" (प्ररूपक)
प्राचीन आचार्यों ने तेजः समुद्घात शब्दका यह अर्थ किया है
"तेजो निसर्ग लब्धिमान क्रुद्धः साध्वादिः सप्ताष्टौपदानि अवष्वष्कय विष्कंभ वाहल्याभ्यां शरीरमान मायामतस्तु संख्येय योजन प्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं शरीराद्धहिः प्रक्षिप्य क्रोध विषयी कृतं मनुष्यादि निर्दहति तत्रच प्रभूतांस्तैजसशरीरनामपुद्गलान शातयति"
(प्रवचन सारोद्धार २३१ द्वार) अर्थ:
तेजो लब्धिधारी साधु आदि क्रोधित होकर सात आठ पैर पीछे हट कर अपने शरीरके समान स्थूल और विस्तृत तथा संख्यात योजन पर्यन्त लम्बायमान जीव प्रदेश दण्डको बाहर निकाल कर क्रोध विषयीभूत मनुष्य आदिको जला देता है इसमें बहुतसे तेजस शरीर नाम वाले पुद्गलोंका शातन होता है इसलिये इसे तेजः समुद्घात कहते हैं । यह प्रवचन सारोद्धारके ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है।
इसमें, क्रोधित हो कर तेजोलब्धि धारी साधु किसीको जलानेके लिये जो उष्ण तेजोलेश्याका प्रक्षेप करता है उसी में तेजका समुद्घात होना कहा है परन्तु किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये जो शीतल लेश्या छोड़ी जाती है उसमें तेजका समुदघात होना नहीं कहा है अत: भगवान महावीर स्वामीने गोशालककी प्राणरक्षा करनेके लिये जो शीतल लेश्या छोडी थी उसमें तेजके समुद्घातका नाम लेकर जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया लगनेकी प्ररूपणा करना मिथ्या है।
(बोल २ समाप्त) (प्रेरक)
उष्णलेश्या के प्रकट करनेमें जिन क्रियाओं का लगना बतलाया है उनके नाम और अर्थ बतलाइये। (प्ररूपक)
वे क्रियाएं पांच हैं--(१) कायिकी (२) आधिकरणिकी (प्राद्वेषिकी ), (४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातिकी। ये पांच ही क्रियायें हिंसाके साथ सम्बन्ध होनेसे
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