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अनुकम्पाधिकारः।
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सावध कहना अज्ञान है। शीतललेश्यासे जीवकी विराधना नहीं होती यह बात विस्तार के साथ लब्धि प्रकरणमें चल कर बतलाई जावेगी।
___ कृष्णजीने बूढ़े पर जो अनुकम्पा की थी वह भी सावद्य नहीं है। यद्यपि अनुकम्पाके लिये कृष्णजीने बढ़ेको ईट उपाडी थी परन्तु ईट उपाडनेकी क्रिया न्यारी और अनुकम्पा न्यारी चीज है इस लिये ईट उपाडने रूप का-के सावध होने पर भी अनुकम्पा सावध नहीं हो सकती। यह बात विस्तारके साथ पहले बतला दी गई है अत: कृष्णजी आदिकी अनुकम्पाके उदाहरणसे गोशालक पर भगवान्की अनुकम्पाको सावध बताना अज्ञान मूलक ही है।
(बोल ३७ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १७८ पर लिखते हैं :
"एकार्यनी मनमें अपनी हियो कम्पायमान हुवो ते मांटे ए अनुकम्पा पिण सावध छै । इहां अनुकम्पा अने कार्य संलग्न छै । जे कृष्णजी ईट उपाही ते अनुकम्पाने अर्थे "अनुकम्पणट्ठयाए” एहवू पाठ कयो छ । ते अनुकम्पाने अथें ईट उपाडी मूकी ते मांटे एकार्याथी अनुकम्पा संलान छै एकार्य रूप अनुकम्पा सावध छ । इम हरिण गमेशी तथा धारिणी अनुकम्पा की धी तिहां पिग "अनुकम्पट्ठयाए” पाठ कह्यो ते मांटे ते अनुकम्पा पिण सावध छ । जिम भगवती शतक ७ उद्दे शा २ कह्यो “जीवो दवट्ठयाए सासए भावट्ठयाए असासए" जीव द्रव्याङ्क सासतो भावार्थे असासतो कह्यो ते द्रव्य भाव जीव थी न्यारा नहीं तिम कृष्ण आदि जे सावध कार्य किया ते तो अनुकम्पा अर्थे किया ते मांटे ए कार्या थी अनुकम्पा पिण न्यारी न गिणवी" (भ्र० पृ० १७८)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
अनुकम्पाके निमित्त जो कार्य किया जाता है वह यदि अनुकम्पासे भिन्न नहीं है तो फिर भगवान महावीर स्वामी और साधुओंका दर्शन के लिये जो कार्य किया जाता है वह भी भगवान महावीर स्वामी और साधुओंके दर्शनसे भिन्न न होना चाहिये। ऐसी दशामें अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यके वजहसे जैसे अनुकम्पाको भ्रम विध्वंसनकार सावध कहते हैं उसी तरह दर्शनके लिये किये जाने वाले कार्यकी वजहसे दर्शनको भी सावध कहना चाहिये । जैसे कृष्णजीकी अनुकम्पाके विषयमें "अनुकम्पगट्ठाए" यह पाठ आया है उसी तरह भगवान महावीर स्वामीके दर्शनार्थ कौणिक राजा
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