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अनुकम्पाधिकारः।
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अर्थ:
यह मन कर हृष्ट तुष्ट हृदय वाले देवतागग, कोई भगवानकी वन्दना करनेके लिये, कोई उनकी पूजा करनेके लिये, कोई सत्कार सम्मान करनेके लिये, कोई कौतूहलके लिये, कोई नहीं सुनो हुई बातको सुननेके लिये और सुने हुए संदिग्ध अर्थको पूछनेके लिये, कोई सूर्यामको आज्ञा पालन करनेके लिये, कोई आने मित्रको आज्ञा पालनके लिये, कोई भगवद्भक्तिके अनुरागसे, कोई धर्म समझ कर, सम्पूर्ण ऋद्धियोंसे युक्त होकर सूर्याभके निकट उपस्थित हुए।
इस पाठमें कहा है कि "देवता लोग भगवान महावीर स्वामीका वन्दन नमस्कार सत्कार सम्मान और सेवा शुश्रूषा करनेके लिये सूर्याभके निकट सब ऋद्धियोंसे युक्त होकर आए" । देवताओंके हृदयमें जब भगवान महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार काने का भाव उत्पन्न हुआ तब वे सूर्याभके पास आये थे अतः भ्रमविध्वंसनकार के हिसाबले भगवान का वन्दन नमस्कार भी सावध ही ठहरेगा क्योंकि साधु किसीको कहीं जाने आनेको आज्ञा नहीं देते । परन्तु यदि आने जाने की क्रिया दूसरी है और वन्दन नमस्कार दूसरा है इसलिये आने जानेको क्रियाके आज्ञा बाहर होने पर भी वन्दन नमस्कर आज्ञा बाहर नहीं है तो उसी तरह अनुकम्पा भी दूसरी है और उसके लिये किया जाने वाला काये दूसरा है। उस काय्यके आज्ञा बाहर होने पर भी अनुकम्पा आज्ञा बाहर और सावध नहीं है। अत: अनुकम्पाके लिये को जाने वाली क्रियाका नाम लेकर अनुकम्पाको सावध कायम करना अज्ञानका परिणाम है।
जिस कार्यके लिये मुनि आज्ञा नहीं देते वह एकान्त पाप है यह भ्रमविध्वंसन कारको प्ररूपगा भी मिथ्या है क्योंकि मुनि लोग किसीको साधुका दर्शन करनेके लिये जानेकी भो आज्ञा नहीं देते तथापि साधु का दर्शन करने के लिये जाना एकान्त पाप नहीं है।
भगवती सूत्र और राजप्रश्नीय सूत्रमें यह पाठ आया है-"तहारूवाणं अरिहंता णं भगवंताणं नाम गोयस्सवि सवगयाए महाफलं किमङ्ग पुग अभिगमण वन्दन नमसण परिपुच्छग पज्जुवासगआए"
अर्थात् तथारूपके अरिहंत और भगवंतोंके नाम गोत्रके श्रवण करनेसे भो महान् फल होता है फिर उनके सम्मुख जाने, वन्दन नमस्कार करने, कुशल प्रश्न करने और सेवा शुश्रूषा करनेसे तो कहना ही क्या है अर्थात उससे तो अवश्य ही महान फल होता है।
इस पाठमें अरिहंत भगन्तोंके सम्मुख जानेका महान फल बतलाया है परन्तु साधु किसीको अरिहंतोंके संमुख जानेकी आज्ञा नहीं देते तथापि शास्त्रकार अरिहंतोंके
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