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सद्धर्ममण्डनम
अर्थः
अर्थात् देवताने अभयकुमारसे कहा कि
हे देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारे प्रमके लिये गर्जन विद्युत और जलविन्दु पातके साथ दिव्य वर्षाऋतुकी शोभा उत्पन्न की है।
यहां अभयकुमारकी प्रीतिके लिये मेह बरसाना कहा है अनुकम्पाके लिये नहीं अत: अनुकम्पासे मेह बरसानेकी बात मूलपाठसे विरुद्ध है।
जैसे गुणोंमें प्रेम रखने वाले देवता तप और संयमसे युक्त मुनि पर अनुकम्पा करके उत्तर वैक्रिय शरीर बना कर उनके दर्शनार्थ हर्षके साथ आते हैं और उन देवताओं के गुणानुराग और मुनि पर अनुकम्पा तथा साधु दर्शनको शास्त्रकार वैक्रिय शरीर बनाने और आने जानेकी क्रिया करनेसे बुरा नहीं किन्तु उत्तम बतलाते हैं क्योंकि गुणानुराग, अनुकम्पा और साधु दर्शन भिन्न हैं और उत्तर वैक्रिय शरीर बनाना तथा आना आदि भिन्न हैं उसी तरह आने जाने आदिकी क्रियायें भिन्न हैं और अनुकम्पा भिन्न है इस लिये आने जाने आदि क्रिया के सावध होने पर भी अनुकम्पा सावद्य नहीं होती अत: अभय कुमार पर देवता की अनुकम्पा को सावय कहना अज्ञान का परिणाम है।
__ (बोल ३३ समाप्त)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन १७१ पर ज्ञाता सूत्र अध्ययन ९ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ इहां रयणा देवींरी अनुकम्पा करी जिन ऋषि साहमो जोयो एपिण अनुकम्पा कही ए अनुकम्पा मोह कमरा उदयथी के मोह कमरा क्षयोपशम थी ए अनुकम्पा सावय छै के निरवद्य छै आज्ञामें छै के आज्ञा बाहिरे छै विवेक विलोचने करी विचारी जोयजो" (भ्र० पृ० १७१)
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
जिन ऋषिने रयणा देवी पर अनुकम्पा करके उसे देखा था यह भ्रमविध्वंसनकारकी बात बिलकुल झूठी और मूलपाठसे विरुद्ध है। वहां मूल पाठमें अनुकम्पाका नाम नहीं है वहां यह पाठ आया है
"समुप्पन्न कलुणभावं" इस पाठमें जो "कलुग" शब्द आया है वह अनुकम्पा अर्थमें नहीं है क्योंकि रयणा देवी पर जिन ऋषिकी अनुकम्पा उत्पन्न होने का
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