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मण्डनम्
अर्थः
गृहस्थ निवासभूत गृहमें साधुका रहना कमंबन्धका कारण होता है। गृहस्थ अपने hi लिये आग जलावे या बुझावे उस समय यदि साधुका मन ऊंचा नीचा हो अर्थात् यह गृहस्थ आग न जलावे या जलावे बुझावे या न बुझावे तो यह कमबन्ध का कारण होता है इसलिये गृहस्थ के निवासभूत गृहमें साधुको नहीं रहना चाहिये । यह इस पाठका अर्थ है ।
इस पाठ अग्नि जलाने से मरने वाले कीड़े आदिकी रक्षाके लिये साधुको अग्नि नहीं जलानेकी भावना नहीं करनी चाहिये यह नहीं कहा है इसलिये अग्नि जलानेसे मरने बाले जीवोंकी रक्षा के लिये अग्नि नहीं जलानेकी भावनाको कर्मबन्धका कारण बताना विध्वंसकारका अज्ञान है ।
भ्रमविध्वंसकारको जीवरक्षा न करना हो इस पाठका रहस्य सूझा है परन्तु इस का कारण क्या आपना स्वार्थ नहीं हो सकता है ? जैसे कि साधुको शीतकी पीड़ा हो रही हो तो उसके मन में ऐसी भावना होना सम्भव है कि यह गृहस्थ आग जलावे तो अच्छा हो, एवं गर्मी लगने पर यह भावना होना भी सम्भव है कि यह गृहस्थ आग न अलावे तो अच्छा हो। इस प्रकार अपने स्वार्थ के लिये साधुके मनमें आग जलाने और न जलाने की भावना हो सकती है। ऐसी भावना गृहस्थके निवास स्थानमें रहने वाले साधु मनमें सम्भव होना देख कर शास्त्रकारने गृहस्थके निवास स्थानमें साधुका रहना afia किया है जीव बचानेके लिये उक्त भावनाका होना कर्मबन्धका कारण जान कर नहीं क्योंकि जीव बचाना और जीव बचानेके लिये जगतको उपदेश देना तो साधुका प्रधान कर्त्तव्य है सच पूछिये तो जैनागमका निर्माण ही जीवरक्षाके लिये हुआ है अतएव प्रश्न व्याकरण सूत्रमें "सव्व जग जीव रक्खण दयठ्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिये” यह पाठ आया है । अतः जीवरक्षामें पाप कहना और जीवरक्षा के लिये आग नहीं अनेक भावना को कर्मबन्ध का कारण बतलाना शास्त्र का रहस्य नहीं समझने का फल है।
भ्रमविध्वंसन कारने जो इस पाठकी व्याख्या की है उससे तो यहांका सारा शास्त्रीय सिद्धान्त ही विपरीत हो जाता है । भ्रमविध्वंसनकार कहते हैं कि "आगमें जल कर मरने वाले जीवों की रक्षा के भावसे साधु यदि आग नहीं जलानेकी भावना करे तो यह कर्मबन्धका कारण है” इनके हिसाब से साधु यदि आगसे जल कर मरने वाले जीवों
रक्षा भावना नहीं वरन् अपने स्वार्थसे आग न जलाने की भावना करे और गृहस्थ के निवासभूत गृहमें रहे तो दोष न होना चाहिये | बल्कि इनके हिसाब से तो साधुको गृहस्थ निवासभूत मकानमें ही रहना चाहिये क्योंकि वहां रहनेसे जब जब
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