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सद्धर्ममण्डनम् ।
ater भङ्गका स्वामी है । ऐसा पुरुष काल शौकरिकादिकी तरह अतिशय पापी होता है । यह उक्त चौभङ्गोका टीकानुसार अर्थ है ।
इसमें कहा है कि स्थविर कल्पी साधु उभयानुकम्पी है वह अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है अतः मरते प्राणीकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधुका धार्मिक कर्त्तव्य सिद्ध होता है । जो स्थविर कल्पी साधु कहलाकर दूसरे जीव की रक्षा नहीं करता वह उक्त पाठानुसार अपने कत्तं व्यसे पतित होता है । जिन कल्पी और प्रत्येक बुद्ध साधु दूसरे की अनुकम्पा नहीं करते किन्तु अपने हितमें ही प्रवृत्त रहते हैं इसलिए वे प्रथम भङ्ग स्वामी कहे गए हैं उनकी तरह जो दूसरे जीवकी अनुकम्पा नहीं करता है वह पुरुष यदि जिनकल्पी और प्रत्येक बुद्ध नहीं है तो उसे प्रथम भङ्गका तीसरा स्वामी निर्दय समझना चाहिए ।
भ्र० वि० कारने भ्र० वि० पृष्ठ १४७ पर इस चौभङ्गीके पहला भङ्गका प्रकार लिखा है
“जे पोताना हितने विषै प्रवर्ते ते प्रत्येक बुद्ध अथवा जिन कल्पिक अथवा परोपकार बुद्धि रहित निर्दय पारका हितने विषे न प्रवर्तें" । इनके अपने लेख से भी यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि जो जिन कल्पिक और प्रत्येक वुद्धसे भिन्न पुरुष, दूसरे प्राणी अनुकम्पा (रक्षा) नहीं करता वह दयाहीन पुरुष है, साधु नहीं है । उस निर्दय को साधु समझना भ्रम है ।
इस
इस पाठकी समालोचना करते हुए भ्रमविध्वंसन कारने सभी प्रकारके कल्पवाले साधुओं को इस चौभङ्गीके प्रथम भङ्गमें ही रक्खा है उन्होंने लिखा है कि “अथअठे पण को साधु पोतानी अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे तो जे पर जीव ऊपर पग न देवेते पिण पोतानीज अनुकम्पा निश्चय नियमाछे" यह मिथ्या है । स्थविर कल्पी साधु दूसरेकी भी अनुकम्पा करते हैं। स्वयं भ्र० वि० कारने भी लिखा है - "तीजे बेहूने हित वाच्छे ते स्थविर कल्पी” इनके इस लेख से भी स्थविर कल्पीका दूसरेकी अनुकम्पा करना सिद्ध होती है ।
अब प्रश्न यह है कि दूसरे जीवपर पैर नहीं रखना तो निश्चय नयसे अपनी ही अनुकम्पा है दूसरेकी नहीं है फिर स्थविर कल्पी दूसरेकी क्या अनुकम्पा करता है ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि स्थविर कल्पी दूसरे मरते हुए जीवकी जो प्राण रक्षा करता है यह दूसरेकी अनुकम्पा है और स्वयं किसी जीवको वह नहीं मारता यह निश्चय नयसे उसकी अपनी अनुकम्पा है अतः उक्त पाठका नाम लेकर मरते जीवकी प्राणरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका फल समझना चाहिये ।
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