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अनुकम्पाधिकारः।
"जे भिक्खू अन्न उत्यियंवा गारत्थियं वा स्क्वइ रक्खंतं का साइजई"
ऐसा लिखनेपर जीवरक्षाका निषेध सरल रीतिसे हो जाता परन्तु ऐसा नहीं लिख कर शास्त्रकारने भूति कम करनेका निषेध किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शास्त्रकारको भूतिकम करनेमें प्रायश्चित बतलाना है जीवरक्षा करनेमें नहीं।
___ जैसे किसी मनुष्यको प्रतिवोध देना पापका कार्य नहीं है तथापि यदि कोई साधु किसीको भूत कर्मके द्वारा प्रविवोध देवे तो उसे अवश्य ही निशीथ सूत्रके इस पाठके अनुसार प्रायश्चित्त होगा परन्तु वह प्रायश्चित्त प्रतिवोध देनेका नहीं किन्तु भूति कम करनेका है उसी तरह जो भूतिकर्मके द्वारा किसीकी रक्षा करता है उसको भूति कर्म करनेका प्रायश्चित्त आता है जीवरक्षा करनेका नहीं क्योंकि जीवरक्षा करना दीक्षा देनेके समानही धर्म है पाप नहीं है।
इसी तरह डाकिनी, शाकिनी, और भूत आदि निकालना तथा सर्प आदिका जहर उतारना, और, औषध आदि बांटना साधुका कल्प नहीं है अत: इन कार्यों को साधु नहीं करते परन्तु मरते प्राणीकी अपने कल्पानुसार रक्षा करते हैं क्योंकि मरते प्राणीकी रक्षा करना प्रतिवोध देनेके समान ही एकान्त धर्मका कार्य है पाप नहीं है इसलिये विविध कुतर्कों की सहायतासे मस्ते प्राणीको प्राणरक्षा करने में पाप कहना निद य जीवोंका कार्य समझना चाहिये ।
(बोल २५ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंससनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १५२ से लेकर १५६ तक उपासक दशांग सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
"अथ अठे पिण कयो चुलगी प्रिय श्रावकरा मुंहडा आगे देवता तीन पुत्रांना शला किया पिण त्यांने बंचाया नहीं माताने बचावा उठ्यो ते पोषा व्रत भाग्यो कयो ते उंदुरादिकने साधु किम बंचावे (भ्र० द० १५९ इसका क्या समाधान ?) (प्ररूपक)
भूमविध्वंसानकारका सिद्धान्त है कि "हिंसकको हिंसाके पापसे बचाने लिये उपदेश देना चाहिये किन्तु मरते जीवकी रक्षाके लिए नहीं" मसः इनके मतानुसार यहां यह प्रश्न होता है कि "चुलगी प्रिय श्रावकने उसके सामने हिंसा करते हुए हिंसक पुरुषको हिंसाके पापसे बचानेके लिए धर्मोपदेश क्यों नहीं दिया ?"
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