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सद्धर्ममण्डनम् ।
में दूसरेकी रक्षाके लिये न सही, अपनी रक्षाके लिये साधु नावमें आता हुआ पानी क्यों नहीं बतला देता ? क्योंकि नावमें पानी आने पर दूसरे लोगोंके समान साधु स्वयं भी तो डूब सकता है फिर वह अपनी रक्षाके लिये पानी क्यों नहीं बताता ? यदि कहो कि अपनी रक्षा करना साधुका कर्त्तव्य तो है परन्तु पानी बतलानेकी जिन आज्ञा नहीं है यह साधुका कल्प नहीं है इसलिये साधु नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता तो उसी तरह यह भी समझो कि दूसरे जीवकी रक्षा करना साधुका कर्तव्य है परन्तु पानी बतलाना उसका कल्प नहीं है इसलिये साधु नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता।
भीषणजी ने लिखा है कि " आप डूबे अनेरा प्राणी अनुकम्पा किगरी नहीं आणी"
अर्थात् नावमें बैठा हुआ साधु आप भी डूवे और दूसरे प्राणी भी डूब जायं परन्तु साधु किसी पर अनुकम्पा न करे। ऐसा माननेसे भीषगजीके सम्प्रदाय वाले साधु ठाणांग सूत्रकी पूर्वोक्त चतुभंगीके चौथो भंगमें शामिल होते हैं क्योंकि उस चतुर्भगी के चौथे भंग वाले जीव न अपनी अनुकम्पा करते हैं और न परकी, जैसे काल शौरिक आदि, किन्तु यह बात शास्त्र तथा इनके अपने सिद्धांतसे भी विरुद्ध है। जीतमल मीने लिखा है किः
"अथ अठे पिण कयो जे साधु पोतानो अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे" (भ्र० पृ० १४७)
यह लिख कर जीतमलजीने अपनी अनुकम्पा करना साधुका कर्तव्य बतलाया है तथा इनके मतानुयायी साधु गाय भैंस कुत्ता आदिसे अपनी रक्षा करते हैं और अपने शरीर की रक्षाके लिये आहार पानी का अन्वेषण करते हैं इस लिये पूर्वोक्त ढालमें भीषगजीने जो यह लिखा है कि "आप डूवे अनेरा प्राणी अनुकम्पा किगरी नहीं आणी" यह इनके अपने सिद्धांत और आचारसे भी विपरीत है परन्तु पर जीव की प्राण रक्षा का खण्डन के आवेश में आकर भीषण जी ने अपनी रक्षा का भी निषेध कर दिया है अत: आचारांगके मूलपाठसे जीवरक्षाका निषेध करना जीतमलजी और भीषण जी का अज्ञान समझना चाहिये ।
वास्तवमें ठाणांग सूत्र ठाणा ४ में कही हुई चौभंगीके अनुसार स्थविर कल्पी साधु अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करते हैं परन्तु नावमें आता हुआ पानी गृहस्थ को बताना उनका कल्प नहीं है इसलिये वे नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाते। इसो अगह आचारांग सूत्रमें साधुको तैर कर नदी पार करना कहा है। यदि भीषगजी की
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