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अनुकम्पाधिकारः ।
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उक्तिके अनुसार अपनी रक्षा करना साधुका कर्तव्य नहीं होता तो इस पाठमें नदी तैर कर साधुको अपनी रक्षा करना कैसे बतलाया जाता ? वह पाठ यह है:
"सेभिक्खूवा उदगंसि पवमाणे नो हत्थेणं हृत्थं पाएण पायं काएण कार्य आसाइज्जा से अणासायणाए अणासायमाणे तओ सं० उद्ग सि पविज्जा ।
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सेभिक्ख वा उद्गसि पवमाणे नो उमुग्ग निमुग्गियं करिज्जा मामेयं उद्ग कन्नेसुवा अच्छीसुवा नक्क सिवा मुहंसिवा परियाकजिज्जा तओ संजयामेव उद्गसि पविज्जा | सेभिक्ख वा उद्ग सि पवमाणे दुब्बलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विगि चिज्जवा विसो हिज्जवा नो चेवणं साइजिज्जा । अह पु० पारए सिया उदगाओ तीरं पाउत्तिए तओ संजयामेव उदउल्लेणवा ससिद्धि णवा कारण उद्गतीरे चिट्टिज्जा"
( आचारांग श्रु० २ अ० २६ )
अथ:
साधु या साध्वी जलसे तैरकर पार करते समय हाथसे हाथका, पैरसे पैरका और शरीरसे शरीरका स्पर्श न करें । किन्तु अपने • अङ्गोंका परस्पर स्पर्श न होने देकर जयणाके साथ जलको पार करें। तैरते समय जलमें डूब्बी न लगावें और अपने आंख, कान, नासिका और मुखमें जलन पैठने दे । जलमें तैरते तैरते यदि साधुके अंग दुर्बल हो जायँ तो वह अपने उपकरणोंको तुरन्त उसी जगह छोड़ देवे उनमें थोड़ी भी मूर्च्छा न लावे । यदि भाण्डोपकरणोंको लेकर साधु पार जाने में समर्थ हो तब उन्हें छोड़नेकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार जलसे पार हो कर जबतक शरीर से जलके बिन्दु गिरें और शरीर भींगा रहे तबतक साधु जलके किनारे पर ही खड़ा रहे, यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ हैं ।
यहां जलसे तैरकर साधुको पार जाना कहा है जलमें डूबकर मरना नहीं कहा है। इसलिए इस पाठसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु अपनी रक्षा करना पाप नहीं समझते ? जब अपनी रक्षा साधु करता है और उससे उसे पाप नहीं होता तो दूसरेकी रक्षा करनेसे उसे पाप कैसे हो सकता है ? अतः भीषणजीने साधुको जलमें डूब मरनेकी जो वात लिखी है वह एकान्त मिथ्या है ।
यदि कोई कहे कि “नदी पार करते समय साधुसे जलके जीवोंकी विराधना तो होती ही है फिर वह नावमें आता हुआ पानी बतलाकर अपनी और दूसरे की रक्षा क्यों नहीं
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