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सद्धर्ममण्डनम् ।
यहां वांधे और छोड़े विना त्रस प्राणीकी रक्षा न होनेकी दशामें साधु को उन्हें बांधने और छोड़नेका भी विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि निशीथ सूत्रके उक्त मूलपाठमें जहां बांधने और छोड़नेसे अनर्थको सम्भावना है वहीं त्रस प्राणी को बांधने और छोड़नेसे प्रायश्चित्त कहा है परन्तु सप्राणीकी रक्षा या अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा है। इसलिये निशीथ सूत्रके मूलपाठ का नाम लेकर त्रस प्राणी पर अनुकम्पा करने और उन की रक्षा करनेमें पाप वताना अज्ञानियों का कार्य है।
__ यदि जीतमलजीके मतानुयायी साधु कहें कि “अपवाद मार्ग में गाय आदि को बांधने और छोड़ने का विधान भाष्य में किया है मूल पाठ में नहीं" तो उनसे कहना चाहिये कि
___ आप लोग अपने जलके पात्रमें पड़ कर शीतसे मूच्छित मक्खी को कपड़े में बांध कर क्यों रखते हैं ? और मूर्छा मिट जाने पर उसे क्यों छोड़ते हैं ? क्योंकि मक्खी भी तो त्रस प्राणी ही है। तथा पागल होने की हालतमें साधुको क्यों बांधते हैं ? क्यों कि साधु भी त्रस प्राणीसे इतर नहीं है अतः निशीथ सूत्रकी चूर्णी और भाष्यमें जो बात कही है उसका आप लोग भी मक्खी आदि तथा साधुओं पर व्यवहार करते हैं परन्तु गाय आदिके विषयमें इसे पाप कहने लगते हैं यह आप लोगोंका अज्ञानके सिवाय और कुछ नहीं है।
निशीथ सूत्रकी इस चूर्णीको जीतमलजीने भी प्रमाण माना है उन्होंने लिखा है 'कि “ कोलुण पडियाए" रो अर्थ चूणी में अनुकम्पा करुणाइज कियो छै" (भ्र० पृ० ११६)
___ वही ची कारण पड़ने पर पशुके बन्धन और मोचनका भी विधान करती है इस लिये इस चूर्णी की आधी बात को मानना और आधी नहीं मानना दुराग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है।
(बोल २८ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १६८ पर लिखते हैं:
“अथ अठे को सुलसानी अनुकम्पाने अर्थे देवकी पासे सुलसाना मुआ बालक मेल्या देवकी ना पुत्र सुलसा पासे मेल्या एपिण अनुकम्पा कहो ए अनुकम्पा आज्ञा मांहे के आज्ञा बाहिरे सावध के निरवद्य छै । एतो कार्य प्रत्यक्ष आज्ञा वाहिरे सावध छै ते कार्यनी देवता ना मनमें उपनी जे ए दुःखिनी छै तो एहने कार्य करी दुःख मेंटू। ए परिणाम रूप अनुकम्पा पिण सावध छै (भ्र० पृ० १६८)
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