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अनुकम्पाधिकारः।
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का दूध पी जावें तो उनका धनी नाराज हो, इत्यादि अनेकों दोष बछड़े आदिको बंधनसे छोड़नेपर सम्भव होते हैं। यदि ये दोष न हों तो भी इस कार्यमें साधुकी प्रवृत्ति होनेपर गृहस्थके मनमें यह विश्वास हो जाता है कि मेरे घरकी सम्हाल रखने वाले साधु वहां मौजूद हैं मुझे गृह काय्यकी कुछ भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। यह सोच कर गृहस्थ गृह कार्यकी चिन्ता छेड़ कर दूसरे कामोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं ऐसी दशामें साधु यदि गृहस्थके पशुओंको बांधे तो उसे बांधनेके दोष लगते हैं अतः साधु गृहस्थके पशुओंको बांधते और छोड़ते नहीं हैं। __ यह ऊपर लिखे हुए भाष्य और चूर्णीके पाठोंका अर्थ है।
__इसमें स्पष्ट लिखा है कि “वछडे आदिको वंधनसे मुक्त करने पर अनेक प्रकारके उपद्रवोंकी संभावना है इसलिये साधु गृहस्थके बछडे आदिको नहीं छोड़ते" यदि छोडं तो इन्हीं उपद्रवोंके कारण ही साधुको प्रायश्चित्त होना कहा है परन्तु अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा है अत: इस पाठका नाम लेकर त्रस प्राणी पर अनुकम्पा करने का निषेध करना भाष्य और चूणीसे विरुद्ध है।
गाय आदि प्राणियों पर अनुकम्पा करना महान धर्मका कार्य है परन्तु उनके बांधने और छोडनेमें अनर्थकी सम्भावना है इसीलिये उन्हें बांधने और छोड़नेसे साधुको प्रायश्चित्त कहा है। जहां बांधे और छोड़े विना गाय आदि प्राणियों की रक्षा नहीं हो सकती हो वहां इसी जगह निशीथसूत्रके भाष्य और चूर्णीमें बांधने और छोड़ने का विधान किया है -
"कारणे पुण वन्धमुयणं करेज्जा । वितिय पदमणपज्झे वन्धे अविकोवितेव अप्पज्झे विसम गडअ गणिआउ वणफगादीसु जाणमवी"
(भाष्य) अणपज्झो वंधइ अविकोविओवा सेहो अहवा विकोविओवा सेहो । अथवा विकोविओ अप्पज्झो इमेहि कारणेहिं बंधति विसमा अगडि अगणिऊसु मरिज्जिहि । इति दुगादिसणफएणवा माखज्जिहित्ति एवं जाणाणावि वंधइ मुयइ"
अर्थात् जहां पशुकी आगमें जल कर गड्ढे में गिर कर या जङ्गली जानवरोंसे मारा. जाकर मर जानेको आशङ्का हो वहां साधु उन्हें बांधते और छोड़ते भी हैं। परन्तु वन्धन गाढ न होना चाहिये।
यह ऊपर लिखे हुए भाष्य और चूर्णीका अर्थ है।
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